प्राकृतिक चिकित्सा ही श्रेष्ठ क्यों?

वो चिकित्सक भगवान का रुप होते है जो औषधीय का ज्ञान रखते है।

भगवान वे होते है जिनको औषधीय पौधे के गुण पता हो और सेवा भाव के साथ मनुष्य को रोगो से मुक्त करते हो।

आज आपको हम हमारे एक चाचा जो के डक्टर है उनकी कहानी बतायेंगे ।

एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव आते है और उनको दबाईयो का कम्पोनेंट समझाते है और कहते है इसको प्रेसक्राइव करिये।
डक्टर साहब कहते है: आपके कम्पनी में तो ऐसा दबाई पहले से ही है फिर भी आप इसको प्रेसक्राइव क्यों करने को कह रहे है?

रिप्रेजेंटेटिव : पुराने वाले में कुछ साइड एफेक्ट दिखे।

मैं उनके सामने बैठी थी मुझसे रहा नही गया मैंने पुछ लिया ''मतलब अबतक आप लोग साइड इफेक्ट वाली दबा बेच रहे थे?''
मेरे चाचा ने समझाया ऐसा होता है नये नये दबाई आते है फिर पुराना कम्पोनेंट चेंज हो जाता है।(मतलब उनको भी दबाई के कम्पोनेंट पर ज्ञान नही है क्योंकि फार्मा के लिए छात्र अलग पड़ाई अलग)

मैं चौक गई । इसका मतलब है मनुष्य के शरीर के साथ खिलवाड़ । जब आच्छे बुरे परिणाम पता ही नही है फिर कैसे मनुष्य को दिया जाता है?

👉यही कारन है जब तक दबा लिया तब तक ठीक रहा दबा छोड़ दिया तो फिर से बिमार।👈

इससे आच्छा तो आयुर्वेद है । दर्द निवारक भी है कोई साइड इफेक्ट नही एवं धीरे-धीरे रोगो का स्वमुल नाश हो जाता है ।
आज आपको हम बतायेंगे एलोपेथी ने कैसे आमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन की जान ले ली ।

एलोपैथी 200-250 वर्ष पुरानी चिकित्सा व्यवस्था है. इसने मात्र एक चीज़ दी है, दर्द से लड़ना.ये बस यही कर रहे हैं दर्द या रोग में कमी, वो भी एस्परिन के सहारे जिसका मुल उपादान है सेलिसिलिक एसिड जो व्हाईट विल्लो ट्री नामक पैड़ के छाल से मिलती है(अरिजिनल )।
कृत्रिम रुप से लेव में बनाकर दर्द का इलाज करते है पर साइड इफेक्ट भी फ्री मिलेगी कृत्रिमता के साथ।

 किसी बड़े रोग को जड-मूल से नष्ट करना इसके बस में नहीं.
 जीवन भर आप दवा खाते रहिये, जैसे ही दवा बंद की बीमारी शुरू. फिर दवा के साइड इफेक्ट होने लगते हैं और उनसे कोई दूसरी बीमारी शुरू हो जाती हैं. फिर उसकी दवा लो,फिर उसके साइड इफेक्ट होंगे. दवा महंगी है, डॉक्टर की फीस महंगी है और रोगी इसमें लुटता रहता है. आपको ब्लड प्रेशर है या शुगर की बीमारी है तो एलोपैथी में ये बीमारी लाईलाज है, ये काबू में रखी जा सकती है लेकिन ठीक नहीं की जा सकती.

और जो सर्जरी ऐलोपैथी में किया जाता है वो तो बर्षो पहले आयुर्वेद के ''सुश्रुत संहिता'' में मिल जाती है।
वही शल्यक्रिया में व्यवहृत उपकरण आज के आधुनिक डॉक्टर व्यवहार करते है।

👉💖शल्यतन्त्र, आयुर्वेद के आठ अंगों में से एक अंग है। सुश्रुतको शल्यक्रिया का जनक माना जाता है। वाग्भट द्वारा रचितअष्टाङ्गहृदयम् का २९वाँ अध्याय 'शस्त्रकर्म विधि' है।

महर्षि सुश्रुत प्रथम व्यक्ति है जिन्होंने शल्यतंत्र के वैचारिक आधारभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जिसके आधार पर प्राचीन भारतवर्ष में शल्य कर्म किये जाते रहे। शल्य तंत्र के प्राचीनतम ग्रंथ सुश्रुतसंहिता में शल्यतन्त्र के अतिरिक्त अन्य विषय भी सम्मिलित हैं (कान, गले, और सिर के रोग, प्रसूतितन्त्र और चिकित्साविज्ञान विषयक आचार संहिता आदि )। महर्षि सुश्रुत ने सबसे पहले शवच्छेदन विधि का वर्णन किया था। महर्षि द्वारा प्रतिपादन 'नासासंधान विधि' वर्तमान में विकसित प्लास्टिक सर्जरी का मूल आधार बनी है, इसे सभी लोग निर्विवाद रूप ले स्वीकार करते हैं। आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी विषयक ग्रंथों में सुश्रुत की नासासंधान विधि का उल्लेख ‘इंडियन मेथड ऑफ राइनोप्लास्टी’ के रूप किया जाता है।

शल्यचिकित्सक के गुणसंपादित करेंशस्त्रवैद्य गुण -शौर्यमाशुक्रिया तीक्ष्णं शस्त्रमस्वेदवेपथू।असम्मोहश्च वैद्यस्य शस्त्रकर्मणि शस्यते॥

शस्त्रवैद्य के लिए आवश्यक गुण ये हैं- शौर्य (साहस), आशुक्रिया (तीव्र गति से कार्य करना), तीक्ष्णशस्त्र (तेज धार वाले शस्त्रों से युक्त), अस्वेद (जो पसीना से रहित हो), वेपथू (जिसके हाथ काँपने न हों), असम्मोह (जो दर्द आदि देखकर सम्मोहित या विचलित न होता हो)।

👉💖शल्य उपकरण एवं उनकी विशेषताएँ

शल्य क्रिया में प्रयुक्त होने वाले विविध उपकरणों एवं उनकी विशेषताओं का वर्णन सुश्रुत संहिता में किया गया है, इसमें शल्य में प्रयुक्त उपकरणों को 'यन्त्र' और 'शस्त्र' नाम से वर्णित किया गया हैं। संहिता में लिखा है-

यन्त्रशतमेकोत्तरम्। – सूश्रुत संहिता, सूत्रस्थान 7.1।

(अर्थ : यन्त्र 101 होते हैं।)

तानि षट्प्रकाराणि, तद्यथा – स्वस्तियन्त्राणि, संदंशयन्त्राणि, तालयन्त्राणि, नाडीयन्त्राणि, शलाकायन्त्राणि, उपयन्त्राणि चेति॥5॥

इन यंत्रों के आकृतिभेद से 6 प्रकार के होते हैं। जैसे स्वस्ति यंत्र, सन्दंशयन्त्र, तालयन्त्र, नाडी़यन्त्र, शलाकायन्त्र और उपयन्त्र॥5॥

तत्र चतुर्विंशतिः स्वस्तिकयन्त्राणि, द्वे एव तालयन्त्रे, विंशतिर्नाड्यः अष्टाविंशतिः शलाकाः, पञ्चविंशतिरूपयन्त्राणि॥6॥

उनमें से स्वस्तिक यंत्र चौबीस प्रकार के, सन्दशयनत्र दो प्रकार के, तालयन्त्र भी दो ही प्रकार के, नाडीयन्त्र बीस प्रकार के, शलाकायन्त्र अट्ठाइस प्रकार के और उपयन्त्र पच्चीस प्रकार के होते हैं।

तानि प्रायशो लौहानि भवन्ति, तत्प्रतिरूपकाणि वा तदलाभे॥7॥

प्रायः करके ये यन्त्र लौह के बनाये जाते हैं किन्तु लौह के अभाव में उसके सदृश पदार्थों के भी बनाये जा सकते हैं॥7॥

तत्र, नानाप्रकाराणां व्यालानां मृगपक्षिणां मुखैर्मुखानि यन्त्राणां प्रायशः सदृशानि। तस्मात् तत्सारूप्यादागमादुपदेशादन्ययन्त्रदर्शनाद् युक्तितश्च कारयेत्॥8॥

👉💖यन्त्रों की बनावट के लिये कहा है कि अनेक प्रकार के हिंसक पशु, मृग और पक्षियों के मुख के समान इनका मुख बनाना चाहिये क्योंकि जानवरों के मुख प्रायः यन्त्रों के समान होते हैं(नौकिले)। इसलिये उक्त प्रकार के पशु – पक्षियों के मुख – सादृश्यानुसार, वेदादि शास्त्रों के प्रामाणानुकूल, अनुभवी वैद्यों के कथनानुसार एवं पूर्वकाल में बने हुए यन्त्रों के समान और युक्तियुक्त यन्त्रों का निर्माण करना चाहिये॥8॥

समाहितानि यन्त्राणि खरश्लक्ष्णमुखानि च। सुदृढानि सुरूपाणि सुग्रहाणि च कारयेत्॥9॥

यन्त्रों को समाहित आवश्यकतानुसार कोई खुरदरे और कोई मुलायम मुख वाले, अत्यन्त मजबूत, सुन्दर और जिन्हें ठीक तरह से हाथ में पकड़ सकें ऐसे बनावें॥9॥

इससे आगे विविध शल्यशस्त्रों का वर्णन करते हैं –

विंशतिः शस्त्राणि, तद्यथा –मण्डलाग्रकरपत्रवृद्धिपत्रनखशस्त्रमुद्रिकोत्पलपत्रकार्द्धधारसूचीकुशपत्राटीमुखशरारिमुखान्तर्मुखत्रिकूर्चककुठारिकाव्रीहिमुखारावेतसपत्रकबडिशदन्तशङ्क्वेषण्य इति॥3॥

शस्त्र बीस प्रकार के होते हैं। उनकी गणना इस प्रकार है-

1 मण्डलाग्र 2 करपत्र 3 वृद्धिपत्र 4 नखशस्त्र 5 मुद्रिका 6 उत्पलपत्र 7 अर्धधार 8 सूची 9 कुशपत्र 10 आटीमुख 11 शरारीमुख 12 अन्तर्मुख 13 त्रिकूर्चक 14 कुठारिका 15 व्रीहिमुख 16 आरा 17 वेतसपत्र 18 बडिश 19 दन्तशङ्कु 20 एषनी

👉एलोपैथी से अमरीका के राष्ट्रपति की मृत्यु

  (200 साल पहले ये हाल था एलोपैथि का आज एलोपैथि डक्टर स्वयम भगवान समझते है😓)

अमेरिका 1776 में अंग्रेजों से आज़ाद हुआ और जॉर्ज वॉशिंगटन पहले राष्ट्रपति बने. यूरोप और अमेरिका ठण्ड  वाले इलाके हैं. सूर्य का प्रकाश यहाँ कम प्राप्त होता है,धूप यहाँ बहुत कम निकलती है इसलिए यहाँ वाईरल और बैक्टीरियल संक्रमण बहुत ज़्यादा होते हैं, इसलिए जो एंटी वाईरल और एंटी बैक्टीरिअल एलोपेथी दवाएं हैं वो  सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों ने खोजी हैं.
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन एक बार बीमार पद गए, भीगे हुए कपड़े में ज्यादा देर तक रहे तो उन्हें बुखार आ गया गले में ठंड लगने के कारण सुजन आ गई . उस समय के सारे देश और दुनिया के ऐलोपैथी के बड़े डॉक्टर जॉर्ज वॉशिंगटन की बीमारी का इलाज ढूँढने लगे, बहुत उपाय करे लेकिन वो राष्ट्रपति का बुखार कम नहीं कर पाए. ज्वर(बुखार) बढ़ता ही जा रहा था. अंत में सभी ने मिलकर ये फैसला किया कि राष्ट्रपति जी के शरीर में खराब खून घुस गया है और जबतक खराब रक्त(खून) को नहीं निकाला जाता तब तक ज्वर ठीक नहीं होगा. तो उन महानुभावों नें राष्ट्रपति के हाथ-पाँव पलंग से बाँध दिए और शरीर से रक्त निकालने के लिए उनके हाथों की नसों को काट दिया. राष्ट्रपति चीखता रहा, पूंछता रहा कि ये सब क्या कर रहे हो? डॉक्टर कहते रहे कि चिंता न करें आपका इलाज हो रहा है. रात भर खून बहता रहा. गंदे के साथ अच्छा खून भी निकल गया और सवेरे राष्ट्रपति की मृत्यु हो गयी. ये बात 1799 के आस-पास की है.

लिंक:

https://www.mountvernon.org/library/digitalhistory/digital-encyclopedia/article/the-death-of-george-washington/

👉जिस समय एलोपेथी में बुखार ठीक करने के लिए लोगों की नसें और नाडियाँ काटी जा रही थीं उस समय भारत में नीम की गिलोय का काढा पिलाकर बड़े से बड़ा ज्वर ठीक कर दिया जाता था, और एक नहीं ऐसे सैकड़ों उपाय भारत में थे हर रोग के लिए.
और रक्तशोधन के लिए भी आयुर्वेद में अनेको औषधि मिल जायेगी। हालांकि भारत में पौधा विज्ञान( वोटानीकल रिसर्च ) सेंटर से ज्यादा फार्मा कम्पनी है जो मनुष्य को विजनेस बनाकर लुटने में लगे है ।👈

एकदिन ऐसा आयेगा हम जीवनदायी पौधो को भुल जायेंगे और हमारी जीवन एवं चिकित्सा केबल कुछ
 फार्मा कम्पनी और कुछ लुटेरे डक्टरो के दया की मोहताज बन कर रह जायेगी।

👉महर्षि चरक जी ने कहा था👈

 ''प्रकृति सबकी माता है जैसे वच्चे पैदा होने पर माता की स्तन में स्वत दुध आ जाती है वैसे ही जीवो के कल्याण के लिए प्रकृति अन्न, वस्त्र, रोग होने पर औषधि का जन्म देती है।''

चरक जी आगे कहते है जो ''जिस जगह पर जो रोग रहते है उस जगह के आस-पास ही उसे रोग निवारक जड़ीवुटी बुटी भी मिल जाती है ।''

कारण : जिस जगह के हवा में विषाणु रहती है उसका पहला प्रतिरोधक बृक्ष अपने अंदर सर्वप्रथम बनाता है। जैसे बृक्ष अपने लिये खाना बनाता है ठीक बैसे ही औषधि भी बनाते है ताकि उसे बृक्ष को उस विषाणु से कोई खतरा न हो। कुछ बृक्ष औषधि अधिक बनाती है जो मानव के लिए भी प्रभावी हो उसी का पहचान करना ही आयुर्वेद है।

उस जगह के विषाणु मानव पर असर करेंगे तो मानव अपने अंदर औषधि नही बना सकते उसके लिए खाद्य के रुप में या फिर उसी औषधि के रुप में उसको बृक्ष के उपर निर्भर करना पड़ता है।

आजकल पर्यावरण को हम इतना दूषित कर रहे है बृक्ष एवं जीव दोनो ही विमार पड़ जाते है।
और पर्यावरण के सुधार भी बृक्ष से ही होगा। नही तो फेफडो की विमारी फ्री में मिलेगी।
बृक्ष हमारे लिए प्रकृति माता की आशिर्वाद है इसका संरक्षण, संवर्द्धन  करे🙏।

महिने एक छुट्टी में एक औषधि पौधा लगा दिजिये।
दान पुण्य से अधिक फल मिलता है ।

#कृष्णप्रिया

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