पुनर्जन्म भाग 2

पुनर्जन्म

वैदिक सिद्धांत के अनुसार आत्मा अपने कर्मो के अनुसार शरीर बदलता रहता है। सभी शरीरो मे मात्र मनुष्य ऐसा शरीर है जिसमे आत्मा कर्म करने मे स्वतंत्र है। इस शरीर मे जहा वह अपने पिछले किये कर्मो का फल भोगता है वहा नये कर्म भी करता है। इसलिये मनुष्य शरीर को भोग योनि तथा कर्म योनि कहा जाता है। अन्य सभी योनिया केवल मात्र भोग योनि हैं क्योंकि उनमे जीव स्वतन्त्र होकर अथवा विचार कर कर्म नही कर सकता। वह या तो पराधीन होकर काम करता है या स्वभाव से करता हैं।

             मनुष्य से भिन्न सभी योनियो की ऐसी अवस्था हैं जैसी तलवार की। कोई व्यक्ति तलवार चलाकर के अच्छा या बुरा काम करता है तो उसका फल या दण्ड तलवार चलाने वाले को मिलता है, तलवार को नही।अतः मनुष्य जन्म मे किए हुए कर्मों के अनुसार ही आत्मा को शरीर मिलता है। यदि शुभ कर्म अधिक हो तो देव यानि विद्वान् का शरीर मिलता है। बुरे कर्म अधिक हो तो पशु, पक्षी, कीट, पतंग, आदि का जन्म मिलता है। अच्छे ओर बुरे कर्म बराबर हो तो साधारण मनुष्य का जन्म मिलता है। यह जीव मन से शुभ अशुभ किए कर्म का फल मन से भोगता है। वाणी से किये का वाणी से शरीर से किए का शरीर से भोगता है। महाऋषि मनु ने वेदो के आधार पर ऐसा ही लिखा है। आत्मा मनुष्य या पशु जिस भी योनि मे जाता है उसी के अनुसार ढल जाता है— जैसे पानी मे जो रंग डाला जाता है पानी उसी रंग का बन जाता है। पुनर्जन्म को गीता मे ऐसा लिखा है——

“जिस प्रकार मनुष्य फटे पुराने कपडो को उतार कर नये पहन लेता है ठीक उसी प्रकार यह आत्मा जीण॔ (निकम्मे )शरीर को छोडकर नया शरीर धारण कर लेता है।”

प्रश्न –  हमे पूर्वजन्म याद क्यों नही ?

उत्तर – जीव का ज्ञान दो प्रकार का होता है- 1.  स्वाभाविक ओर 2.  नैमित्तिक। 1)स्वाभाविक ज्ञान सदा रहता है (अवचेतन मन की उपलब्धि) 2) नैमित्तिक ज्ञान बढता घटता रहता है( चेतन मन के द्वारा उपलब्धि)।
जीव को अपने अस्तित्व का जो ज्ञान है वह स्वाभाविक है।
परन्तु आंख, कान आदि इन्द्रियो से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह नैमित्तिक ज्ञान है।

नैमित्तिक ज्ञान तीन कारणो से उत्पन्न होता है– देश, काल ओर वस्तु। इन तीनो कापरेरेशन जैसा जैसा इन्द्रियो से सम्बन्ध होता है वैसा वैसा संस्कार मन पर पडता है। इनसे सम्बन्ध हटने पर इनका ज्ञान भी नष्ट हो जाता है। पूर्व जन्म का देश, काल, शरीर का वियोग होने से उस समय का नैमित्तिक ज्ञान नही रहता।  

मनुष्य शरीर एक घोड़ा-गाड़ी

        कठोपनिषद् मे मनुष्य शरीर की तुलना एक घोड़ा-गाड़ी से की गई है। मनुष्य के शरीर मे दस इन्द्रियाँ- जिनमें-पांच ज्ञान इन्द्रिया :- आख, कान, नाक, जिव्हा, त्वचा ओर पांच कर्म इन्द्रियां :-  हाथ, पाव,मुख, मल ओर मूत्र इन्द्रियां रथ को खीचने वाले दस घोड़े है।
मन लगाम, बुद्धि सारथी (रथवान्) तथा आत्मा रथ का सवार है। आत्मा रूपी सवार तभी अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा जब बुध्दि रूपी सारथी मन रूपी लगाम को अपने वश मे रख के इन्द्रियां रूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा। घोड़े अगर सारथी के वश मे नही है तो वे इधर-उधर के आकर्षणो मे उलझकर मार्ग को छोड बैठेंगे। यही अवस्था इन्द्रियो की है। ऐसी अवस्था का दु:ख रूपी दुष्परिणाम भोगना पडता है आत्मा को।
इस गाड़ी को किराये की गाड़ी बताया गया है जिसे वायु ,जल ओर भोजन के रूप मे निरन्तर किराया देना पड़ता है।

गीता मे कहा गया है – इन्द्रियो की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि अधिक श्रेष्ट है, बुद्धि की अपेक्षा आत्मा ओर अधिक श्रेष्ट है।

#कृष्णप्रिया

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