पुनर्जन्म वेदों द्वारा प्रमाणित
पुनर्जन्म वेदों द्वारा प्रमाणित
यजुर्वेद के चैथे अध्याय का पन्द्रहवाँ मन्त्र जीवात्मा के पुनर्जन्म के विषय में कहता है -
‘‘पुनर्मनः पुनरायुर्मऽआगन् पुनः प्राणः पुनरात्मामऽआगन् पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रं मेऽआगन्। वैश्वानरोऽअदब्धस्तनूपाऽअग्निर्नः पातु दुरिता- दवद्यात्।’’
‘‘हे ईश्वर जब-जब हम जन्म लें, तब-तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त आत्मा, उत्तम चक्षु और भोग प्राप्त हो। विश्व में विराजमान ईश्वर प्रत्येक जन्म में हमारे शरीरों का पालन करे, वह अग्नि स्वरूप-पाप से निन्दित कर्मों से हमें बचाये।
भारतीय संस्कृति में पुनर्जन्म को मान्यता दी गई है। गीता में भी कहा गया है-
वसांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि ग्रहति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नया शरीर धारण करता है।
अब प्रश्न उठता है कि पुनर्जन्म का आधार क्या है? कोई जीवात्मा धनाढ्य परिवार में आता है तो कोई बहुत गरीबी में, कोई भारी पुरुषार्थ करके भी समुचित सम्पदा प्राप्त नहीं कर पाता और कोई साधारण परिश्रम से ही भारी सम्पन्नता ग्रहण कर लेता है। कोई अपंग, कोई मेधा, बुद्धि सम्पन्न तो कोई मानसिक विक्षिप्त पैदा इसका मुख्य कारण मनुष्य जीवन में किये गये कर्म, ज्ञान प्राप्ति आदि हैं।
महर्षि ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘‘सुख-दुःख की घटती बढ़ती देखकर पुनर्जन्म का अनुमान क्यों नहीं लगा लेते? और जो पुनर्जन्म को नहीं मानोगे तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता है। बिना पाप के दरियाद्र दुःख और बिना पुण्य के राज्य, धनाढ्य और बुद्धि क्यों मिली। जन्म से लेकर राज-धन, बुद्धि, विद्या, दरिद्रता, मूर्खता, निर्बुद्धि आदि को देखकर पूर्वजन्म का ज्ञान क्यों नहीं करते?’’
अब इस सिद्धान्त को समझाने के लिये एक आख्यायिका प्रस्तुत है -
एक बार राजा जयद्रथ अपने मंत्री बालादत्त के साथ एक उद्यान में घूम रहे थे। पक्षियों को कलरव करते देख उनके मन में प्रश्न उठा-ये पक्षी क्यों हैं? मैं राजा क्यों हूँ? यह मन्त्री ये साधारण जन क्यों हैं? इसका उत्तर इन्होंने अपने मंत्री से जानना चाहा। मन्त्री ने कहा-‘‘मैं जानता तो नहीं, किन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक जीवात्मा कर्मफल व्यवस्था से जुड़ी है। यहाँ संयोग कुछ भी नहीं है। सभी कुछ विधि की न्याय व्यवस्था और उद्देश्यपूर्ण होता है। फिर भी आपके इन प्रश्नों के उत्तर कोई त्रिकालदर्शी योगी ही दे सकते हैं। राज्य में एक ‘सरपाह’ नाम के योगी जंगल में कुटिया बनाकर रहते थे। राजा की उत्कंठा इतनी तीव्र थी कि वह उनसे मिलने निकल पड़े।
उस योगी ने बताया कि तुम्हें अपने प्रश्नों का उत्तर यहाँ से बीस-बीस कोस की दूरी पर रह रहे तीन व्यक्तियों से मिलेंगे। जब राजा पहले व्यक्ति के पास पहुँचे तो देखा वह कंकर-पत्थर खा रहा है। उसके मुख से खून निकल रहा था, उसके बताने पर दूसरे व्यक्ति के पास पहुँचे जो मिट्टी खाकर अपनी क्षुधा तृप्त कर रहा था। उसके बताने पर राजा व मंत्री तीसरे व्यक्ति के पास पहुँचे जो भूख से बेहाल कुछ भी खाने में समर्थ नहीं था। राजा को देखकर उस व्यक्ति ने एक कथा सुनाई।
‘‘राजन पिछले जन्म में हम पाँच मित्र व्यापार के लिये निकले थे। सबके पास दो-दो रोटी थी। एक तालाब के किनारे बैठकर खाने की योजना बनाई और चटनी पीसने लगे। एक मित्र ने चटनी की प्रतीक्षा नहीं की, अपनी रोटी खा ली। इतने में एक साधु आया जो भूखा था। उसने रोटी माँगी-हममें से एक ने कहा कि ‘‘रोटी तुझे दे देंगे’ तो मैं क्या कंकर पत्थर खाऊँगा। वह व्यक्ति वही था तो कंकड़-पत्थर खा रहा था। हम में से दूसरे ने कहा-‘‘रोटी तुझे दे दूँगा तो क्या मैं मिट्टी खाऊँगा।’’ दूसरा व्यक्ति वही था जिसे तुमने मिट्टी खाते देखा। तीसरे साथी ने कहा-‘‘रोटी तुझे दे दूँगा तो क्या मैं भूखा रहूँगा। इससे तो तुम ही भूखे रह लो।’’ चैथे ने कहा-महाराज मैं आपको अपनी रोटी दे देता, किन्तु मैं खा चुका हूँ। पाँचवा मित्र ने अपनी दोनों रोटी साधु को दे दी। वह हम सबको देखता रहा। फिर बोला-‘‘जिसकी जैसी भावना है, उसे अगला जन्म वैसा ही मिले। इस पर तुमने हाथ जोड़कर हमारे उद्धार की प्रार्थना की और ये तुम्हारे साथ जो मंत्री है उसने भी हमारे लिये प्रायश्चित करने की प्रार्थना की। साधु ने कहा-अब बात मुख से निकल गई। सो फल तो अवश्य मिलेगा, किन्तु अगले जन्म में तुम्हें यह सब याद रहेगा जिससे शुद्ध हृदय व सात्विक वृत्ति के बन सको। इनसे मिलकर तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी। पुनः उन मित्रों को लेकर राजा उस महायोगी के पास आया। उन्होंने बताया- राजन् सबको अपना-अपना कर्म फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। तुम्हारी वृत्ति तो पवित्र थी किन्तु कर्म नहीं किया इसलिये मंत्री बने। इन तीनों की वृत्ति अपवित्र थी सो इन्होंने भी अपना-अपना कर्मफल भोगा है। तब राजा ने कहा-महाराज आप क्यों यहाँ हमारी प्रतीक्षा में बैठे हैं। तब महायोगी ने बताया कि मैं भी तो उस विधाता के विधान के अनुसार कर्मफल भोग रहा हूँ। आवेश में आकर मैंने साधु होकर श्राप दिया। उसी से मुक्ति पाने के लिये तुम सबकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
इस आख्यायिका को बताने का अभिप्राय यही है कि मानव को यह बात समझ में आ सके कि पुनर्जन्म कर्मों के अनुसार पूर्व जन्म के कर्म फल भोगने और और आगे के लिये पुनः कर्म करने के लिये होता है। इस तरह यह चार तथ्य सामने आये -
1. जीवात्मा पुनर्जन्म लेती है।
2. जीवात्मा को कर्मों के आधार पर जन्म मिलता है।
3. जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर के साथ उसके धर्म, कर्म व ज्ञान साथ रहते हैं।
4. शरीर छोड़ते समय मन में जो अधूरी कामना रह जाती है तब वह वर्तमान जन्म में उसकी पूर्ति के लिये जन्म लेता है।
5, कामना रहित ईश्वर अनुगामी आत्मा का पुनर्जन्म नही होता।
पहला सिद्धान्त जो सामने आता है-जीवात्मा पुनर्जन्म लेती है। इसको सत्य सिद्ध करने के लिये हमें कितनी ही बार समाज में रहने वाले प्रमाण मिल जाते हैं। कुछ सात्विक प्रवृत्ति की जीवात्माओं को अपना पिछला जन्म बाल्यावस्था तक याद रहता है। ऐसी अनेक घटनायें सामने आई हैं और उन पर अनुसंधान करके सत्य पाया गया है। एक घटना का उल्लेख कर रही हूँ। 21 जून 2011 को टी0वी0 में एक सत्य घटना समाचार प्रसारण में बताई गई है। ‘‘सात वर्ष पूर्व राजस्थान के एक गाँव हनुमानगढ़ी में एक बच्चे का जन्म हुआ। जब बच्चा बोलने लगा तो पाया गया उसकी बोली में पंजाबी पुट था। वह कहता था सात साल पहले मेरा कत्ल हुआ था। मैं पंजाब के अबोहर जिले की एक वर्कशाप में काम करता था। मुझे नशे का पदार्थ खिलाकर रेलवे ट्रैक पर डाल दिया था। मुझे बहुत मारा भी था। मेरे दिमाग में बहुत दशहत थी। मुझे उससे बदला लेना है। उस बच्चे ने कातिल का नाम पता भी बताया। जब घटना की खोजबीन की गई तो घटना बिल्कुल सत्य पाई गयी। इस बच्चे ने अपना नाम सुभाष बताया। अबोहर के थाने में इस घटना की रिपोर्ट भी दर्ज थी। किन्तु कातिल का पता नहीं लग सका था इसलिये सजा नहीं हुई। कातिल की पुष्टि इस बच्चे के नाम बताने पर हो गई थी किन्तु पर्याप्त सबूत न मिलने के कारण कोर्ट ने बच्चे की गवाही नहीं मानी। इस तरह की अनेकों घटनायें भारत या हिन्दू धर्म में नहीं, विदेशों में अन्य धर्मों में भी पाई गई हैं।
इसी से जुड़ा एक तथ्य यह भी विचारणीय है कि क्या जीव एक शरीर छोड़ने के तुरन्त बाद दूसरा शरीर धारण करता है या कुछ काल पश्चात्। इसके उत्तर में अनेकों घटनाओं के विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जीवात्मा तुरन्त गर्भ में नहीं जाता। यह समय भी उसके कर्म के आधार पर ही निर्धारित होता है। यद्यपि उपनिषदों में बताया गया है कि जीव जब दूसरे शरीर को पाने योग्य या स्थिति में होता है तभी पहला शरीर छोड़ता है। इसकी सत्यता सूंडी का उदाहरण देकर समझाई गई है। किन्तु बहुत से वेद मंत्रों से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि जीव कुछ समय अपने अच्छे कर्मों का सुख भोगने, इ्र्रश्वर की व्यवस्था में रहता है। तब ईश्वर की व्यवस्थानुसार पुनः गर्भ में आता है।
यजुर्वेद के 39वें अध्याय का छठे मन्त्र का भाव भी ऐसा ही है -
‘‘सविता प्रथमोऽहन्नाग्नि, द्वितीये वायु स्तृतीय, आदित्यश्चतुर्थे, चन्द्रमाः पंचमऽऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तम बृहस्पतिरष्टमे मित्रो नवमे वरुणो दशमऽइन्द्रऽ एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे।’’
जीव शरीर छोड़ने के पश्चात् पहले दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि, तीसरे दिन वायु, चैथे दिन आदित्य या मास, पांचवें दिन चन्द्रमा, छठे दिन ऋतु (हेमन्त, वसन्त आदि), सातवें दिन मरुत अर्थात् मनुष्य आदि प्राणी समूह, आठवें दिन बृहस्पति अर्थात् विद्वान आत्मायें बड़ों की रक्षक सूत्रात्मा वायु, नौवें दिन प्राण उदान, दसवें दिन वरुण अर्थात् विद्युत, ग्यारहवें दिन इन्द्र अर्थात् दिव्य गुण तथा बारहवें दिन विश्व देव-ईश्वर की व्यवस्था में चला जाता है।
इस मन्त्र के अनुसार जीव शरीर छोड़ने के पश्चात् (सविता) प्रकाश किरण के साथ रहकर इन लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करता है किन्तु यह लोक-लोकान्तर क्या हैं? कितने हैं या क्या व्यवस्था है, इसका विवरण मुझे भी स्पष्ट रूप से नहीं मिला है। फिर पुनः अपने पुण्य कर्मों के आधार पर मोक्ष का आनन्द ईश्वर की व्यवस्थानुसार व्यतीत करके पुनः पृथ्वी पर जन्म लेता है।
इसके पश्चात् दूसरा प्रश्न आता है जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेता है।
कर्म करना जीव की प्राथमिक आवश्यकता है। ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने के लिए स्वतंत्र छोड़ रखा है किन्तु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कर्म तीन प्रकार के होते हैं जो मनुष्य करता है-पहला-निष्काम कर्म। दूसरा-सकाम कर्म। तीसरा-साधारण कर्म। परमात्मा ने कर्म करने के लिये इस सृष्टि की रचना की है किन्तु वह स्वयं कर्म नहीं करता। जैसे लोहा दिया, अब उससे तलवार, भाला, मशीनें, सुई आदि बनाना मानव का काम है। हाथ कर्म करने के साधन के रूप में दिये किन्तु उनसे कर्म करना जीव का काम है।
कर्म के आठ तत्व होते हैं -
1. काल तत्व - अर्थात् जब भूख प्यास लगी तो भोजन किया, नींद आने पर सो गये।
2. स्वभाव - भूख लगने पर भोजन बनाना, इसी प्रकार के कार्य। 3. नियति - जीवन चलाने के लिये धनोपार्जन करना।
4. योनि - मानव योनि में बुद्धि, विवेक से कार्य करना, पशु योनि में निश्चित प्रकार के कर्म करना।
5. इच्छा - किसी विशेष प्रकार के कर्म करने के लिये प्रेरित होना।
6. संयोग - किसी कार्य को करते-करते कोई दूसरा कार्य भी कर दिया। समय व परिस्थिति के अनुसार।
7. आत्मा या सार तत्व - बुद्धि व आत्मबल या संकल्प के आधार पर आगे कर्म करना।
8. भूतकाल में किये गये कर्मों के आधार पर आगे कर्म करना।
इस प्रकार के कर्म करना जीवन के अभिन्न अंग हैं। किन्तु इनको करने के आधार पर अगला जन्म मिलता है।
निष्काम कर्म - कामना और स्वार्थ रहित कर्म।जो कर्म ज्ञान से परिपक्व होकर विवेकपूर्ण ढंग से कत्र्तव्य भावना समझ कर किये जाते हैं, अधिक परिश्रम होने पर भी प्रसन्नतापूर्वक किये जाते हैं। फल की इच्छा त्याग कर सुख-दुःख अनुभव रहित कल्याण व परोपकार की भावना से किये जाते हैं। वह निष्काम कर्म कहलाते हैं। ऐसी जीवात्माओं को योगी, तपस्वी या महापुरुषों का जन्म मिलता है।
सकाम कर्म - जो कर्म कल्याण के लिये तो किये जाते हैं किन्तु उनमें यश व स्वार्थ की भावना रहती है जैसे जनकल्याण के लिये कुयें, बावड़ी, अस्पताल आदि बनवाना। ऐसी जीवात्माओं को अगला जन्म भौतिक सुखों से भरपूर जीवन मिलता है। धनाढ्य या नामी परिवारों में जन्म मिलता है।
3. साधारण कर्म - जो कर्म कुछ अच्छे, कुछ बुरे होते हैं। साधारण जीवन में किये जाते हैं। कुछ स्वार्थ से, कुछ परोपकार के लिये। ऐसी जीवात्माओं को कर्म के आधार पर कीट-पतंग, पशु-पक्षी, गरीब या साधारण परिवारों में जन्म मिलते हैं। क्योंकि ईश्वर का विधान है जितने पाप कर्म किये, जितने पुण्य कर्म किये, उसी के अनुसार भांति-भांति के शरीर मिलते हैं तथा अगले जन्म में उतने ही दुःख सुख मिलते हैं। कुछ कर्मों का निराकरण तो इसी जन्म में हो जाता है। इसी जन्म में फल मिल जाता है किन्तु कुछ का अगले जन्म में ही होता है। कुछ रोगों का कारण भी पूर्व जन्म ही होता है।
यजुर्वेद के उनतालीस अध्याय के छठे मन्त्र का आशय भी कुछ इस प्रकार से है -
उग्रश्च भीमश्च, ध्वान्तश्च धुनिश्च, सासध्वाँश्चाभियुग्वा,
न विक्षिपः स्वाहा।। यजुर्वेद - 39-6
हे मनुष्यों शरीर से निकल कर जीव अपने-अपने कर्मानुसार-उग्र स्वभाव वाले-कठोर, धर्मात्मा-शान्त व सहृदय भय देने वाले-पतित, चंचल वृत्ति वाले-अज्ञानी तथा विद्वान-ज्ञानी होकर विचरण करते हैं।
अपने कर्मों के आधार पर जीवात्मा बार-बार जन्म मरण के चक्र में पड़ा रहता है। अथर्ववेद के 5/1/1/2 द्वारा प्रमाणित होता है -
‘‘आयो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वंपूशि कृणुषे पुरुणि।
धास्युर्योनिं प्रथम आविवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत।।’’
अथर्व.-5/1/1/2
आयो धर्माणि - जो मनुष्य पूर्व जन्म में धर्माचरण करता है, ततो वपूषिं कृणुषे पुरुणि - उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त करता है। धास्युर्योनि-पूर्वजन्म में किये हुये पाप, पुण्य के फलों को भोगने के पश्चात् जीवात्मा शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है। पुनः जल, औषधि, प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है, तदन्तर गर्भ में प्रवेश कर जन्म लेता है। यो वाचमनुदितां - जो जीव अनुदित वाणी, सत्य भाषण आदि, वैसा ही यथावत जान, आचिकेत-कर बोलता है। ससाद-यथावत स्थित रहता है। वह जीवात्मा मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेकों नीच शरीर अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि शरीरों का धारण कर दुःख भोगता है।
यजुर्वेद के ही एक अन्य मन्त्र (19/47) के अनुसार -
‘‘द्वे सृती अश्रवणं पितृणामहं देवाताभुत मत्र्यानाम्
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरम् च।।’’
इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर, दूसरा नीच गति से कीट पतंग आदि। मनुष्य शरीर के तीन भेद होते हैं। एक-पितृदेव यानि ज्ञानी होना। दूसरा-देव पुरुष यानि विद्याओं द्वारा ज्ञान प्राप्त करना। तीसरी-मत्र्य-साधारण मनुष्य। इन्हीं भेदों के कारण (ताभ्यांमिदं- विश्वमेजत्समेति) सभी जीवात्मायें अपने-अपने पाप व पुण्य, शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगते हैं।
वैदिक मान्यता जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार शरीर प्राप्त करते हैं। इसके वैदिक प्रमाण आपके समक्ष रखें। इस प्रसंग को बताने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य वर्तमान जीवन में शुभ व परोपकारी कर्म करें जिससे अगले जन्म में कम से कम मानव का चोला तो मिले। ईश्वर की बेआवाज लाठी से डरें क्योंकि बिना भय के मनुष्य अपने कर्मों को नहीं सुधारता। बचपन की एक घटना मुझे आज भी भयभीत करती है। बचपन में मैंने एक डिब्बी जिसमें कुछ सिक्के थे, चुरा ली और अपने सहेली को बता दिया। जब उसकी माँ को पता चला तो उन्होंने मुझे समझाया कि चोरी करना पाप है। इसकी सजा तुम्हें यमराज तेल के खौलते कढ़ाओं में डालकर देंगे। वह भय आज भी याद रहता है और किसी पराई वस्तु को उठाने की सोच भी नहीं पाती।
अब आता है तीसरा प्रसंग-जीवात्मा के साथ वर्तमान जीवन में अर्जित ज्ञान, धर्म व परोपकार ही जाता है। धर्म का अर्थ धार्मिक स्थलों में जाकर अपने-अपने धर्म के अनुसार पूजा-अर्चना करना नहीं है। धर्म से तात्पर्य है-परोपकार करना, जरूरतमंदों को दान देना, ईश्वर को हमेशा अपना साथी मानना। दीन-दुःखियों की सहायता करना तथा अपने बुजुर्गों तथा विद्वानों का सम्मान करना। सद्आचरण करना अर्थात् गलत तरीकों से धन अर्जित न करना, अपनी ऐषणाओं को येन-केन प्रकारेण गलत तरीकों से प्राप्त न करना। जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है-पहले ज्ञान प्राप्त करना फिर उस पर आचरण करना, धैर्य व क्षमाशील स्वभाव रखना। मनुष्य वर्तमान जीवन में जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करता है। चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। अगले जन्म में वही साथ जाता है। इसका प्रमाण भी अनेकों उदाहरणों से मिलता है।
1970 में डेविस एस0 विस्कोट नामक एक मनोवैज्ञानिक ने एक महिला का निरीक्षण किया और पाया कि वह प्रत्येक वाद्य यन्त्र को आसानी से और पूर्ण दक्षता से बजा लेती है। जबकि उसने कहीं भी प्रशिक्षण नहीं लिया।
कुछ वर्ष पूर्व लगभग 2003 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में एक पाँच वर्षीय बालक ‘आकाश’ आया था। उसे पूरी गीता कंठस्थ थी चाहे जहाँ से श्लोक सुन लो, वह अर्थ सहित बता देता था। यह हमारी आँखों देखी घटना है। यजुर्वेद भी कंठस्थ था। पाँच वर्षीय एक बालक तुलसी ने गणित के बड़े-बड़े सवाल हल कर दिये तथा 9 वर्ष की आयु में मैट्रिक पास कर लिया। इसी प्रकार के अनेकोें प्रसंग देखने में आते हैं आज भी। अभी दो तीन वर्ष पूर्व समाचार पत्र में एक समाचार छपा था। पाँच वर्ष की आयु में एक बालक ने विमान उड़ाया। 1997 में कीर्ति निषाद ने तीन वर्ष की आयु में डेढ़ कि0मी0 यमुना नदी पार की दिल्ली में।
यद्यपि कुछ वैज्ञानिक उन्हें पूर्व जन्म का अर्जित ज्ञान नहीं मानते। उनका कहना है कि मस्तिष्क (इतंपद) में एक प्रकार का रसायन प्रोटोजोया नाम का होता है जिसमें मस्तिष्क का एक विशेष भाग सक्रिय हो जाता है और इस प्रकार की विलक्षणतायें आती हैं किन्तु इस पर प्रश्नचिन्ह लगता है कि इतने शोध होने पर चिकित्सा शास्त्री क्यों नहीं आपरेशन द्वारा इस रसायन को सक्रिय कर देते जिससे अनेकों विकलांग व मंद बुद्धि बच्चों को राह मिल सके, क्योंकि ऐसा करना संभव नहीं है।
यहीं आकर वेद ज्ञान को, ईश्वर की अटूट सत्ता को तथा पुनर्जन्म में प्राप्त ज्ञान की विलक्षणता को मानना पड़ता है। वर्तमान जीवन में जो जीवात्मा अपने मस्तिष्क का जितना अधिक उपयोग करेगा, वह अगले जन्म में उतना ही विलक्षण होगा। यदि साधारणतया भी देखे तो आज के बच्चों की बुद्धि प्रतिभा (प्ण्फ) अधिक विकसित है। अपेक्षाकृत अब से 50-60 वर्ष पूर्व के।
इन्हीं प्रत्यक्ष प्रमाणों से वेद की सत्यता के आधार पर कहा जा सकता है कि जीवात्मा के साथ जुड़े सूक्ष्म शरीर से पुनर्जन्म में ज्ञान, धर्म और परोपकार आते हैं। इन्हीं के आधार पर जीवात्मा को वर्तमान जीवन में सुख व सम्पन्नता मिलती है।
अब आता है कि जीवात्मा जिस कामना में आसक्त होकर शरीर छोड़ता है वर्तमान जन्म में उसे पूर्ण करता है।
मनुष्य में तीन प्रकार की ऐषणाएं होती हैं। एक पुत्रेष्णा अर्थात् सन्तान की इच्छा, 2. वित्तैष्णा-धनोपार्जन कर अधिक से अधिक धन प्राप्त करना, 3. लोकेषणा - अर्थात् नाम व यश की इच्छा। वर्तमान जन्म में किसी भी कमी के कारण यह ऐषणाएं यदि पूर्ण नहीं होती और मनुष्य की कोई भी एषणा अत्यधिक गहरी होती है, जैसे धन की कमी के कारण स्वजन की मृत्यु होना, सन्तान की आकस्मिक या किसी विशेष परिस्थिति में मृत्यु होना अथवा यश कामना की पूर्ति न होना। तब उसकी पूर्ति के लिये ही पुनर्जन्म होता है। उदाहरण स्वरूप अभी कुछ दिन पूर्व टी0वी0 में पलक नाम की एक लड़की दिखाई थी जो इस समय 23 वर्ष की है किन्तु वह चार वर्ष की आयु से तीन-तीन घण्टे के स्टेज शो करके गरीब बच्चों के दिलों के आपरेशन अपने खर्चे से कराती थी। अब तक उसने लगभग साढ़े सात सौ दिलों के आपरेशन अपने खर्चे से करा दिये हैं। उसकी चार वर्ष की अवस्था के एक शो को हरिद्वार के भारतमाता के मन्दिर मंे हमने भी देखा है। जबकि इस आयु के बच्चे को दिल के आपरेशन का ज्ञान भी नहीं होता। उस समय एक आपरेशन का व्यय लगभग चालीस हजार रुपये आता था।
वृहदारण्यक उपनिषद में बताया गया है कि कुछ ऐषणायें तो वर्तमान जन्म में पूर्ण हो जाती है। किन्तु कुछ परिस्थितिवश पूर्ण नहीं होती। तब वह इच्छा जीवात्मा से अत्यन्त गहराई से जुड़ जाती हैं और आत्मा जो भी रूप लेती है वह उससे जुड़कर कामना भय होकर जन्म लेती है।
कहा गया है-‘‘काममयं एवायं पुरुषः’’ जीवात्मा की शरीर छोड़ते समय जैसी कामना होती है (तीव्र इच्छा) वह वैसा ही प्रयत्न करता है तथा वैसा ही कर्म करता है। वर्तमान जन्म में। इसी उपनिषद् में बताया गया है कि जब अन्त समय आने वाला होता है तब जीवात्मा अन्तर्मुखी हो जाता है। उसकी आँखें देखते हुये भी कुछ नहीं देख पाती, कान सुनते हुये भी कुछ नहीं सुन पाते। उस पर बेहोशी की सी अवस्था छाने लगती है। तब जीव में अन्त ज्र्योति प्रकाशित होती है। जो हिता नाम की नाड़ी में समस्त प्राणांे को एकत्रित कर लेती है। तब उसका सारा जीवन कुछ ही मिनटों में चलचित्र की भांति आ जाता है। जीवन में की गई प्रत्येक बुराई व अच्छाई और अधूरी रह गई गहन कामनायें सब सूक्ष्म शरीर से जुड़ जाती हैं।
कहते हैं रोम का सबसे अधिक क्रूर राजा जब मर रहा था, पीड़ा से तड़प रहा था तब उससे पादरी ने कहा, तुम अपनी पीड़ा के लिए शैतान को गाली दो। इस पर वह बोला-नहीं पादरी अब मैं शैतान को भी गाली नहीं दे सकता। अब मुझे अपनी गलतियों का अहसास हो गया है।
आज का मनोविश्लेषण वाद भी इस बात को स्वीकार करने लगा है कि मनुष्य के अंत समय में जो कामना अत्यन्त गहराई से छुपी रहती है। वर्तमान जन्म में पूर्ण नहीं होती। तब वह उसे पुनर्जन्म में पूरी करता है। वह कामना चाहे किसी से बदला लेने की भावना हो, चाहे धन की कमी से इलाज न करा सकने का दर्द हो या कोई विशेष कार्य करके यश पाने की लालसा हो, वह अगले जन्म में पूरी करता है।
मनुष्य को कर्मयोनि मिलती है। उसे ईश्वर ने बुद्धि, भावनायें, संवेग तथा पुरुषार्थ करने की क्षमता दी है। कर्म करने के लिये स्वतंत्र छोड़ा है। इसीलिये सभी धर्मों में एक ही शिक्षा दी जाती है कि शुभ कर्म करो, परोपकार व सेवा करो। अपने बुजुर्गों का सम्मान करो, धनोपार्जन खूब करो किन्तु सात्विक ढंग से, ईमानदारी से, घुटालों या अनैतिक तरीकों से नहीं। क्योंकि वह चाहे वर्तमान जीवन में उसका कैसा भी उपयोग कर ले। किन्तु यदि इस जीवन में फल नहीं मिला तो अगले जन्म में अवश्य मिलेगा। हो सकता है अगला जन्म व्याधियों, दुःखों व धनाभाव का मिले, अपंगता का मिले। क्योंकि यह ईश्वर का विधान है। उसने मनुष्य को कर्म करने में स्वतंत्र छोड़ा है फल पाने में नहीं।
कहा जाता है वरन् शोध द्वारा प्रमाणित भी हो चुका है कि शरीर से प्राण निकलने के बाद भी लगभग एक डेढ़ घण्टे तक मनुष्य का मस्तिष्क क्रियाशील रहता है वह बाहरी वातावरण की हर बात सुन सकता है किन्तु क्रिया कुछ भी नहीं कर सकता है। इसीलिये कहा जाता है कि मृत शरीर के पास गीता का अठारहवां अध्याय, उपनिषद या वेद मंत्रों का पाठ करना चाहिये जिससे कुछ अच्छे विचार आत्मा पर पड़ सकें तथा नया जन्म अच्छे संस्कारों के साथ मिल सके।
#कृष्णप्रिया
यजुर्वेद के चैथे अध्याय का पन्द्रहवाँ मन्त्र जीवात्मा के पुनर्जन्म के विषय में कहता है -
‘‘पुनर्मनः पुनरायुर्मऽआगन् पुनः प्राणः पुनरात्मामऽआगन् पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रं मेऽआगन्। वैश्वानरोऽअदब्धस्तनूपाऽअग्निर्नः पातु दुरिता- दवद्यात्।’’
‘‘हे ईश्वर जब-जब हम जन्म लें, तब-तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त आत्मा, उत्तम चक्षु और भोग प्राप्त हो। विश्व में विराजमान ईश्वर प्रत्येक जन्म में हमारे शरीरों का पालन करे, वह अग्नि स्वरूप-पाप से निन्दित कर्मों से हमें बचाये।
भारतीय संस्कृति में पुनर्जन्म को मान्यता दी गई है। गीता में भी कहा गया है-
वसांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि ग्रहति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नया शरीर धारण करता है।
अब प्रश्न उठता है कि पुनर्जन्म का आधार क्या है? कोई जीवात्मा धनाढ्य परिवार में आता है तो कोई बहुत गरीबी में, कोई भारी पुरुषार्थ करके भी समुचित सम्पदा प्राप्त नहीं कर पाता और कोई साधारण परिश्रम से ही भारी सम्पन्नता ग्रहण कर लेता है। कोई अपंग, कोई मेधा, बुद्धि सम्पन्न तो कोई मानसिक विक्षिप्त पैदा इसका मुख्य कारण मनुष्य जीवन में किये गये कर्म, ज्ञान प्राप्ति आदि हैं।
महर्षि ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘‘सुख-दुःख की घटती बढ़ती देखकर पुनर्जन्म का अनुमान क्यों नहीं लगा लेते? और जो पुनर्जन्म को नहीं मानोगे तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता है। बिना पाप के दरियाद्र दुःख और बिना पुण्य के राज्य, धनाढ्य और बुद्धि क्यों मिली। जन्म से लेकर राज-धन, बुद्धि, विद्या, दरिद्रता, मूर्खता, निर्बुद्धि आदि को देखकर पूर्वजन्म का ज्ञान क्यों नहीं करते?’’
अब इस सिद्धान्त को समझाने के लिये एक आख्यायिका प्रस्तुत है -
एक बार राजा जयद्रथ अपने मंत्री बालादत्त के साथ एक उद्यान में घूम रहे थे। पक्षियों को कलरव करते देख उनके मन में प्रश्न उठा-ये पक्षी क्यों हैं? मैं राजा क्यों हूँ? यह मन्त्री ये साधारण जन क्यों हैं? इसका उत्तर इन्होंने अपने मंत्री से जानना चाहा। मन्त्री ने कहा-‘‘मैं जानता तो नहीं, किन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक जीवात्मा कर्मफल व्यवस्था से जुड़ी है। यहाँ संयोग कुछ भी नहीं है। सभी कुछ विधि की न्याय व्यवस्था और उद्देश्यपूर्ण होता है। फिर भी आपके इन प्रश्नों के उत्तर कोई त्रिकालदर्शी योगी ही दे सकते हैं। राज्य में एक ‘सरपाह’ नाम के योगी जंगल में कुटिया बनाकर रहते थे। राजा की उत्कंठा इतनी तीव्र थी कि वह उनसे मिलने निकल पड़े।
उस योगी ने बताया कि तुम्हें अपने प्रश्नों का उत्तर यहाँ से बीस-बीस कोस की दूरी पर रह रहे तीन व्यक्तियों से मिलेंगे। जब राजा पहले व्यक्ति के पास पहुँचे तो देखा वह कंकर-पत्थर खा रहा है। उसके मुख से खून निकल रहा था, उसके बताने पर दूसरे व्यक्ति के पास पहुँचे जो मिट्टी खाकर अपनी क्षुधा तृप्त कर रहा था। उसके बताने पर राजा व मंत्री तीसरे व्यक्ति के पास पहुँचे जो भूख से बेहाल कुछ भी खाने में समर्थ नहीं था। राजा को देखकर उस व्यक्ति ने एक कथा सुनाई।
‘‘राजन पिछले जन्म में हम पाँच मित्र व्यापार के लिये निकले थे। सबके पास दो-दो रोटी थी। एक तालाब के किनारे बैठकर खाने की योजना बनाई और चटनी पीसने लगे। एक मित्र ने चटनी की प्रतीक्षा नहीं की, अपनी रोटी खा ली। इतने में एक साधु आया जो भूखा था। उसने रोटी माँगी-हममें से एक ने कहा कि ‘‘रोटी तुझे दे देंगे’ तो मैं क्या कंकर पत्थर खाऊँगा। वह व्यक्ति वही था तो कंकड़-पत्थर खा रहा था। हम में से दूसरे ने कहा-‘‘रोटी तुझे दे दूँगा तो क्या मैं मिट्टी खाऊँगा।’’ दूसरा व्यक्ति वही था जिसे तुमने मिट्टी खाते देखा। तीसरे साथी ने कहा-‘‘रोटी तुझे दे दूँगा तो क्या मैं भूखा रहूँगा। इससे तो तुम ही भूखे रह लो।’’ चैथे ने कहा-महाराज मैं आपको अपनी रोटी दे देता, किन्तु मैं खा चुका हूँ। पाँचवा मित्र ने अपनी दोनों रोटी साधु को दे दी। वह हम सबको देखता रहा। फिर बोला-‘‘जिसकी जैसी भावना है, उसे अगला जन्म वैसा ही मिले। इस पर तुमने हाथ जोड़कर हमारे उद्धार की प्रार्थना की और ये तुम्हारे साथ जो मंत्री है उसने भी हमारे लिये प्रायश्चित करने की प्रार्थना की। साधु ने कहा-अब बात मुख से निकल गई। सो फल तो अवश्य मिलेगा, किन्तु अगले जन्म में तुम्हें यह सब याद रहेगा जिससे शुद्ध हृदय व सात्विक वृत्ति के बन सको। इनसे मिलकर तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी। पुनः उन मित्रों को लेकर राजा उस महायोगी के पास आया। उन्होंने बताया- राजन् सबको अपना-अपना कर्म फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। तुम्हारी वृत्ति तो पवित्र थी किन्तु कर्म नहीं किया इसलिये मंत्री बने। इन तीनों की वृत्ति अपवित्र थी सो इन्होंने भी अपना-अपना कर्मफल भोगा है। तब राजा ने कहा-महाराज आप क्यों यहाँ हमारी प्रतीक्षा में बैठे हैं। तब महायोगी ने बताया कि मैं भी तो उस विधाता के विधान के अनुसार कर्मफल भोग रहा हूँ। आवेश में आकर मैंने साधु होकर श्राप दिया। उसी से मुक्ति पाने के लिये तुम सबकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
इस आख्यायिका को बताने का अभिप्राय यही है कि मानव को यह बात समझ में आ सके कि पुनर्जन्म कर्मों के अनुसार पूर्व जन्म के कर्म फल भोगने और और आगे के लिये पुनः कर्म करने के लिये होता है। इस तरह यह चार तथ्य सामने आये -
1. जीवात्मा पुनर्जन्म लेती है।
2. जीवात्मा को कर्मों के आधार पर जन्म मिलता है।
3. जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर के साथ उसके धर्म, कर्म व ज्ञान साथ रहते हैं।
4. शरीर छोड़ते समय मन में जो अधूरी कामना रह जाती है तब वह वर्तमान जन्म में उसकी पूर्ति के लिये जन्म लेता है।
5, कामना रहित ईश्वर अनुगामी आत्मा का पुनर्जन्म नही होता।
पहला सिद्धान्त जो सामने आता है-जीवात्मा पुनर्जन्म लेती है। इसको सत्य सिद्ध करने के लिये हमें कितनी ही बार समाज में रहने वाले प्रमाण मिल जाते हैं। कुछ सात्विक प्रवृत्ति की जीवात्माओं को अपना पिछला जन्म बाल्यावस्था तक याद रहता है। ऐसी अनेक घटनायें सामने आई हैं और उन पर अनुसंधान करके सत्य पाया गया है। एक घटना का उल्लेख कर रही हूँ। 21 जून 2011 को टी0वी0 में एक सत्य घटना समाचार प्रसारण में बताई गई है। ‘‘सात वर्ष पूर्व राजस्थान के एक गाँव हनुमानगढ़ी में एक बच्चे का जन्म हुआ। जब बच्चा बोलने लगा तो पाया गया उसकी बोली में पंजाबी पुट था। वह कहता था सात साल पहले मेरा कत्ल हुआ था। मैं पंजाब के अबोहर जिले की एक वर्कशाप में काम करता था। मुझे नशे का पदार्थ खिलाकर रेलवे ट्रैक पर डाल दिया था। मुझे बहुत मारा भी था। मेरे दिमाग में बहुत दशहत थी। मुझे उससे बदला लेना है। उस बच्चे ने कातिल का नाम पता भी बताया। जब घटना की खोजबीन की गई तो घटना बिल्कुल सत्य पाई गयी। इस बच्चे ने अपना नाम सुभाष बताया। अबोहर के थाने में इस घटना की रिपोर्ट भी दर्ज थी। किन्तु कातिल का पता नहीं लग सका था इसलिये सजा नहीं हुई। कातिल की पुष्टि इस बच्चे के नाम बताने पर हो गई थी किन्तु पर्याप्त सबूत न मिलने के कारण कोर्ट ने बच्चे की गवाही नहीं मानी। इस तरह की अनेकों घटनायें भारत या हिन्दू धर्म में नहीं, विदेशों में अन्य धर्मों में भी पाई गई हैं।
इसी से जुड़ा एक तथ्य यह भी विचारणीय है कि क्या जीव एक शरीर छोड़ने के तुरन्त बाद दूसरा शरीर धारण करता है या कुछ काल पश्चात्। इसके उत्तर में अनेकों घटनाओं के विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जीवात्मा तुरन्त गर्भ में नहीं जाता। यह समय भी उसके कर्म के आधार पर ही निर्धारित होता है। यद्यपि उपनिषदों में बताया गया है कि जीव जब दूसरे शरीर को पाने योग्य या स्थिति में होता है तभी पहला शरीर छोड़ता है। इसकी सत्यता सूंडी का उदाहरण देकर समझाई गई है। किन्तु बहुत से वेद मंत्रों से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि जीव कुछ समय अपने अच्छे कर्मों का सुख भोगने, इ्र्रश्वर की व्यवस्था में रहता है। तब ईश्वर की व्यवस्थानुसार पुनः गर्भ में आता है।
यजुर्वेद के 39वें अध्याय का छठे मन्त्र का भाव भी ऐसा ही है -
‘‘सविता प्रथमोऽहन्नाग्नि, द्वितीये वायु स्तृतीय, आदित्यश्चतुर्थे, चन्द्रमाः पंचमऽऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तम बृहस्पतिरष्टमे मित्रो नवमे वरुणो दशमऽइन्द्रऽ एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे।’’
जीव शरीर छोड़ने के पश्चात् पहले दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि, तीसरे दिन वायु, चैथे दिन आदित्य या मास, पांचवें दिन चन्द्रमा, छठे दिन ऋतु (हेमन्त, वसन्त आदि), सातवें दिन मरुत अर्थात् मनुष्य आदि प्राणी समूह, आठवें दिन बृहस्पति अर्थात् विद्वान आत्मायें बड़ों की रक्षक सूत्रात्मा वायु, नौवें दिन प्राण उदान, दसवें दिन वरुण अर्थात् विद्युत, ग्यारहवें दिन इन्द्र अर्थात् दिव्य गुण तथा बारहवें दिन विश्व देव-ईश्वर की व्यवस्था में चला जाता है।
इस मन्त्र के अनुसार जीव शरीर छोड़ने के पश्चात् (सविता) प्रकाश किरण के साथ रहकर इन लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करता है किन्तु यह लोक-लोकान्तर क्या हैं? कितने हैं या क्या व्यवस्था है, इसका विवरण मुझे भी स्पष्ट रूप से नहीं मिला है। फिर पुनः अपने पुण्य कर्मों के आधार पर मोक्ष का आनन्द ईश्वर की व्यवस्थानुसार व्यतीत करके पुनः पृथ्वी पर जन्म लेता है।
इसके पश्चात् दूसरा प्रश्न आता है जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेता है।
कर्म करना जीव की प्राथमिक आवश्यकता है। ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने के लिए स्वतंत्र छोड़ रखा है किन्तु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कर्म तीन प्रकार के होते हैं जो मनुष्य करता है-पहला-निष्काम कर्म। दूसरा-सकाम कर्म। तीसरा-साधारण कर्म। परमात्मा ने कर्म करने के लिये इस सृष्टि की रचना की है किन्तु वह स्वयं कर्म नहीं करता। जैसे लोहा दिया, अब उससे तलवार, भाला, मशीनें, सुई आदि बनाना मानव का काम है। हाथ कर्म करने के साधन के रूप में दिये किन्तु उनसे कर्म करना जीव का काम है।
कर्म के आठ तत्व होते हैं -
1. काल तत्व - अर्थात् जब भूख प्यास लगी तो भोजन किया, नींद आने पर सो गये।
2. स्वभाव - भूख लगने पर भोजन बनाना, इसी प्रकार के कार्य। 3. नियति - जीवन चलाने के लिये धनोपार्जन करना।
4. योनि - मानव योनि में बुद्धि, विवेक से कार्य करना, पशु योनि में निश्चित प्रकार के कर्म करना।
5. इच्छा - किसी विशेष प्रकार के कर्म करने के लिये प्रेरित होना।
6. संयोग - किसी कार्य को करते-करते कोई दूसरा कार्य भी कर दिया। समय व परिस्थिति के अनुसार।
7. आत्मा या सार तत्व - बुद्धि व आत्मबल या संकल्प के आधार पर आगे कर्म करना।
8. भूतकाल में किये गये कर्मों के आधार पर आगे कर्म करना।
इस प्रकार के कर्म करना जीवन के अभिन्न अंग हैं। किन्तु इनको करने के आधार पर अगला जन्म मिलता है।
निष्काम कर्म - कामना और स्वार्थ रहित कर्म।जो कर्म ज्ञान से परिपक्व होकर विवेकपूर्ण ढंग से कत्र्तव्य भावना समझ कर किये जाते हैं, अधिक परिश्रम होने पर भी प्रसन्नतापूर्वक किये जाते हैं। फल की इच्छा त्याग कर सुख-दुःख अनुभव रहित कल्याण व परोपकार की भावना से किये जाते हैं। वह निष्काम कर्म कहलाते हैं। ऐसी जीवात्माओं को योगी, तपस्वी या महापुरुषों का जन्म मिलता है।
सकाम कर्म - जो कर्म कल्याण के लिये तो किये जाते हैं किन्तु उनमें यश व स्वार्थ की भावना रहती है जैसे जनकल्याण के लिये कुयें, बावड़ी, अस्पताल आदि बनवाना। ऐसी जीवात्माओं को अगला जन्म भौतिक सुखों से भरपूर जीवन मिलता है। धनाढ्य या नामी परिवारों में जन्म मिलता है।
3. साधारण कर्म - जो कर्म कुछ अच्छे, कुछ बुरे होते हैं। साधारण जीवन में किये जाते हैं। कुछ स्वार्थ से, कुछ परोपकार के लिये। ऐसी जीवात्माओं को कर्म के आधार पर कीट-पतंग, पशु-पक्षी, गरीब या साधारण परिवारों में जन्म मिलते हैं। क्योंकि ईश्वर का विधान है जितने पाप कर्म किये, जितने पुण्य कर्म किये, उसी के अनुसार भांति-भांति के शरीर मिलते हैं तथा अगले जन्म में उतने ही दुःख सुख मिलते हैं। कुछ कर्मों का निराकरण तो इसी जन्म में हो जाता है। इसी जन्म में फल मिल जाता है किन्तु कुछ का अगले जन्म में ही होता है। कुछ रोगों का कारण भी पूर्व जन्म ही होता है।
यजुर्वेद के उनतालीस अध्याय के छठे मन्त्र का आशय भी कुछ इस प्रकार से है -
उग्रश्च भीमश्च, ध्वान्तश्च धुनिश्च, सासध्वाँश्चाभियुग्वा,
न विक्षिपः स्वाहा।। यजुर्वेद - 39-6
हे मनुष्यों शरीर से निकल कर जीव अपने-अपने कर्मानुसार-उग्र स्वभाव वाले-कठोर, धर्मात्मा-शान्त व सहृदय भय देने वाले-पतित, चंचल वृत्ति वाले-अज्ञानी तथा विद्वान-ज्ञानी होकर विचरण करते हैं।
अपने कर्मों के आधार पर जीवात्मा बार-बार जन्म मरण के चक्र में पड़ा रहता है। अथर्ववेद के 5/1/1/2 द्वारा प्रमाणित होता है -
‘‘आयो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वंपूशि कृणुषे पुरुणि।
धास्युर्योनिं प्रथम आविवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत।।’’
अथर्व.-5/1/1/2
आयो धर्माणि - जो मनुष्य पूर्व जन्म में धर्माचरण करता है, ततो वपूषिं कृणुषे पुरुणि - उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त करता है। धास्युर्योनि-पूर्वजन्म में किये हुये पाप, पुण्य के फलों को भोगने के पश्चात् जीवात्मा शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है। पुनः जल, औषधि, प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है, तदन्तर गर्भ में प्रवेश कर जन्म लेता है। यो वाचमनुदितां - जो जीव अनुदित वाणी, सत्य भाषण आदि, वैसा ही यथावत जान, आचिकेत-कर बोलता है। ससाद-यथावत स्थित रहता है। वह जीवात्मा मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेकों नीच शरीर अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि शरीरों का धारण कर दुःख भोगता है।
यजुर्वेद के ही एक अन्य मन्त्र (19/47) के अनुसार -
‘‘द्वे सृती अश्रवणं पितृणामहं देवाताभुत मत्र्यानाम्
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरम् च।।’’
इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर, दूसरा नीच गति से कीट पतंग आदि। मनुष्य शरीर के तीन भेद होते हैं। एक-पितृदेव यानि ज्ञानी होना। दूसरा-देव पुरुष यानि विद्याओं द्वारा ज्ञान प्राप्त करना। तीसरी-मत्र्य-साधारण मनुष्य। इन्हीं भेदों के कारण (ताभ्यांमिदं- विश्वमेजत्समेति) सभी जीवात्मायें अपने-अपने पाप व पुण्य, शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगते हैं।
वैदिक मान्यता जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार शरीर प्राप्त करते हैं। इसके वैदिक प्रमाण आपके समक्ष रखें। इस प्रसंग को बताने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य वर्तमान जीवन में शुभ व परोपकारी कर्म करें जिससे अगले जन्म में कम से कम मानव का चोला तो मिले। ईश्वर की बेआवाज लाठी से डरें क्योंकि बिना भय के मनुष्य अपने कर्मों को नहीं सुधारता। बचपन की एक घटना मुझे आज भी भयभीत करती है। बचपन में मैंने एक डिब्बी जिसमें कुछ सिक्के थे, चुरा ली और अपने सहेली को बता दिया। जब उसकी माँ को पता चला तो उन्होंने मुझे समझाया कि चोरी करना पाप है। इसकी सजा तुम्हें यमराज तेल के खौलते कढ़ाओं में डालकर देंगे। वह भय आज भी याद रहता है और किसी पराई वस्तु को उठाने की सोच भी नहीं पाती।
अब आता है तीसरा प्रसंग-जीवात्मा के साथ वर्तमान जीवन में अर्जित ज्ञान, धर्म व परोपकार ही जाता है। धर्म का अर्थ धार्मिक स्थलों में जाकर अपने-अपने धर्म के अनुसार पूजा-अर्चना करना नहीं है। धर्म से तात्पर्य है-परोपकार करना, जरूरतमंदों को दान देना, ईश्वर को हमेशा अपना साथी मानना। दीन-दुःखियों की सहायता करना तथा अपने बुजुर्गों तथा विद्वानों का सम्मान करना। सद्आचरण करना अर्थात् गलत तरीकों से धन अर्जित न करना, अपनी ऐषणाओं को येन-केन प्रकारेण गलत तरीकों से प्राप्त न करना। जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है-पहले ज्ञान प्राप्त करना फिर उस पर आचरण करना, धैर्य व क्षमाशील स्वभाव रखना। मनुष्य वर्तमान जीवन में जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करता है। चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। अगले जन्म में वही साथ जाता है। इसका प्रमाण भी अनेकों उदाहरणों से मिलता है।
1970 में डेविस एस0 विस्कोट नामक एक मनोवैज्ञानिक ने एक महिला का निरीक्षण किया और पाया कि वह प्रत्येक वाद्य यन्त्र को आसानी से और पूर्ण दक्षता से बजा लेती है। जबकि उसने कहीं भी प्रशिक्षण नहीं लिया।
कुछ वर्ष पूर्व लगभग 2003 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में एक पाँच वर्षीय बालक ‘आकाश’ आया था। उसे पूरी गीता कंठस्थ थी चाहे जहाँ से श्लोक सुन लो, वह अर्थ सहित बता देता था। यह हमारी आँखों देखी घटना है। यजुर्वेद भी कंठस्थ था। पाँच वर्षीय एक बालक तुलसी ने गणित के बड़े-बड़े सवाल हल कर दिये तथा 9 वर्ष की आयु में मैट्रिक पास कर लिया। इसी प्रकार के अनेकोें प्रसंग देखने में आते हैं आज भी। अभी दो तीन वर्ष पूर्व समाचार पत्र में एक समाचार छपा था। पाँच वर्ष की आयु में एक बालक ने विमान उड़ाया। 1997 में कीर्ति निषाद ने तीन वर्ष की आयु में डेढ़ कि0मी0 यमुना नदी पार की दिल्ली में।
यद्यपि कुछ वैज्ञानिक उन्हें पूर्व जन्म का अर्जित ज्ञान नहीं मानते। उनका कहना है कि मस्तिष्क (इतंपद) में एक प्रकार का रसायन प्रोटोजोया नाम का होता है जिसमें मस्तिष्क का एक विशेष भाग सक्रिय हो जाता है और इस प्रकार की विलक्षणतायें आती हैं किन्तु इस पर प्रश्नचिन्ह लगता है कि इतने शोध होने पर चिकित्सा शास्त्री क्यों नहीं आपरेशन द्वारा इस रसायन को सक्रिय कर देते जिससे अनेकों विकलांग व मंद बुद्धि बच्चों को राह मिल सके, क्योंकि ऐसा करना संभव नहीं है।
यहीं आकर वेद ज्ञान को, ईश्वर की अटूट सत्ता को तथा पुनर्जन्म में प्राप्त ज्ञान की विलक्षणता को मानना पड़ता है। वर्तमान जीवन में जो जीवात्मा अपने मस्तिष्क का जितना अधिक उपयोग करेगा, वह अगले जन्म में उतना ही विलक्षण होगा। यदि साधारणतया भी देखे तो आज के बच्चों की बुद्धि प्रतिभा (प्ण्फ) अधिक विकसित है। अपेक्षाकृत अब से 50-60 वर्ष पूर्व के।
इन्हीं प्रत्यक्ष प्रमाणों से वेद की सत्यता के आधार पर कहा जा सकता है कि जीवात्मा के साथ जुड़े सूक्ष्म शरीर से पुनर्जन्म में ज्ञान, धर्म और परोपकार आते हैं। इन्हीं के आधार पर जीवात्मा को वर्तमान जीवन में सुख व सम्पन्नता मिलती है।
अब आता है कि जीवात्मा जिस कामना में आसक्त होकर शरीर छोड़ता है वर्तमान जन्म में उसे पूर्ण करता है।
मनुष्य में तीन प्रकार की ऐषणाएं होती हैं। एक पुत्रेष्णा अर्थात् सन्तान की इच्छा, 2. वित्तैष्णा-धनोपार्जन कर अधिक से अधिक धन प्राप्त करना, 3. लोकेषणा - अर्थात् नाम व यश की इच्छा। वर्तमान जन्म में किसी भी कमी के कारण यह ऐषणाएं यदि पूर्ण नहीं होती और मनुष्य की कोई भी एषणा अत्यधिक गहरी होती है, जैसे धन की कमी के कारण स्वजन की मृत्यु होना, सन्तान की आकस्मिक या किसी विशेष परिस्थिति में मृत्यु होना अथवा यश कामना की पूर्ति न होना। तब उसकी पूर्ति के लिये ही पुनर्जन्म होता है। उदाहरण स्वरूप अभी कुछ दिन पूर्व टी0वी0 में पलक नाम की एक लड़की दिखाई थी जो इस समय 23 वर्ष की है किन्तु वह चार वर्ष की आयु से तीन-तीन घण्टे के स्टेज शो करके गरीब बच्चों के दिलों के आपरेशन अपने खर्चे से कराती थी। अब तक उसने लगभग साढ़े सात सौ दिलों के आपरेशन अपने खर्चे से करा दिये हैं। उसकी चार वर्ष की अवस्था के एक शो को हरिद्वार के भारतमाता के मन्दिर मंे हमने भी देखा है। जबकि इस आयु के बच्चे को दिल के आपरेशन का ज्ञान भी नहीं होता। उस समय एक आपरेशन का व्यय लगभग चालीस हजार रुपये आता था।
वृहदारण्यक उपनिषद में बताया गया है कि कुछ ऐषणायें तो वर्तमान जन्म में पूर्ण हो जाती है। किन्तु कुछ परिस्थितिवश पूर्ण नहीं होती। तब वह इच्छा जीवात्मा से अत्यन्त गहराई से जुड़ जाती हैं और आत्मा जो भी रूप लेती है वह उससे जुड़कर कामना भय होकर जन्म लेती है।
कहा गया है-‘‘काममयं एवायं पुरुषः’’ जीवात्मा की शरीर छोड़ते समय जैसी कामना होती है (तीव्र इच्छा) वह वैसा ही प्रयत्न करता है तथा वैसा ही कर्म करता है। वर्तमान जन्म में। इसी उपनिषद् में बताया गया है कि जब अन्त समय आने वाला होता है तब जीवात्मा अन्तर्मुखी हो जाता है। उसकी आँखें देखते हुये भी कुछ नहीं देख पाती, कान सुनते हुये भी कुछ नहीं सुन पाते। उस पर बेहोशी की सी अवस्था छाने लगती है। तब जीव में अन्त ज्र्योति प्रकाशित होती है। जो हिता नाम की नाड़ी में समस्त प्राणांे को एकत्रित कर लेती है। तब उसका सारा जीवन कुछ ही मिनटों में चलचित्र की भांति आ जाता है। जीवन में की गई प्रत्येक बुराई व अच्छाई और अधूरी रह गई गहन कामनायें सब सूक्ष्म शरीर से जुड़ जाती हैं।
कहते हैं रोम का सबसे अधिक क्रूर राजा जब मर रहा था, पीड़ा से तड़प रहा था तब उससे पादरी ने कहा, तुम अपनी पीड़ा के लिए शैतान को गाली दो। इस पर वह बोला-नहीं पादरी अब मैं शैतान को भी गाली नहीं दे सकता। अब मुझे अपनी गलतियों का अहसास हो गया है।
आज का मनोविश्लेषण वाद भी इस बात को स्वीकार करने लगा है कि मनुष्य के अंत समय में जो कामना अत्यन्त गहराई से छुपी रहती है। वर्तमान जन्म में पूर्ण नहीं होती। तब वह उसे पुनर्जन्म में पूरी करता है। वह कामना चाहे किसी से बदला लेने की भावना हो, चाहे धन की कमी से इलाज न करा सकने का दर्द हो या कोई विशेष कार्य करके यश पाने की लालसा हो, वह अगले जन्म में पूरी करता है।
मनुष्य को कर्मयोनि मिलती है। उसे ईश्वर ने बुद्धि, भावनायें, संवेग तथा पुरुषार्थ करने की क्षमता दी है। कर्म करने के लिये स्वतंत्र छोड़ा है। इसीलिये सभी धर्मों में एक ही शिक्षा दी जाती है कि शुभ कर्म करो, परोपकार व सेवा करो। अपने बुजुर्गों का सम्मान करो, धनोपार्जन खूब करो किन्तु सात्विक ढंग से, ईमानदारी से, घुटालों या अनैतिक तरीकों से नहीं। क्योंकि वह चाहे वर्तमान जीवन में उसका कैसा भी उपयोग कर ले। किन्तु यदि इस जीवन में फल नहीं मिला तो अगले जन्म में अवश्य मिलेगा। हो सकता है अगला जन्म व्याधियों, दुःखों व धनाभाव का मिले, अपंगता का मिले। क्योंकि यह ईश्वर का विधान है। उसने मनुष्य को कर्म करने में स्वतंत्र छोड़ा है फल पाने में नहीं।
कहा जाता है वरन् शोध द्वारा प्रमाणित भी हो चुका है कि शरीर से प्राण निकलने के बाद भी लगभग एक डेढ़ घण्टे तक मनुष्य का मस्तिष्क क्रियाशील रहता है वह बाहरी वातावरण की हर बात सुन सकता है किन्तु क्रिया कुछ भी नहीं कर सकता है। इसीलिये कहा जाता है कि मृत शरीर के पास गीता का अठारहवां अध्याय, उपनिषद या वेद मंत्रों का पाठ करना चाहिये जिससे कुछ अच्छे विचार आत्मा पर पड़ सकें तथा नया जन्म अच्छे संस्कारों के साथ मिल सके।
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