संस्कृत का जीवा अरब का ज्या और लेटिन का साईन कैसे बना?

संस्कृत का जीवा अरब का
‘ज्या’ और लेटिन का ‘sine’ कैसे बना

भारतीय रेखागणित की विश्वयात्रा



आज से 1200 वर्ष पूर्व, 8वीं शताब्दी में अरब देश में गणित ज्योतिष के एक भारतीय ग्रंथ का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया जा रहा था कि एक शब्द पर अनुवादकों को ठहर जाना पड़ा……

ध्यान रहे कि 8वीं शताब्दी वह समय था जब भारत को विश्वगुरु जैसे विशेषणों से विभूषित किया जाता था। आज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई खोजें और संकल्पनाएं हमारे यहां आयातित होती हैं, लेकिन तब स्थिति इसके उलट थी। तब भारत ही वह केंद्र था जहां से भौतिक वस्तुओं के निर्यात के साथ-साथ, नवीन सिद्धांत और संकल्पनाएं भी दूर-दूर तक प्रसार पाती थीं। भारत से अरब और फिर अरब से यूरोप – इसी मार्ग से भारतीय ज्ञान-विज्ञान का वैश्विक प्रसार हुआ।

आइए अब हम फिर से वही सूत्र पकड़ते हैं जो ऊपर पहले अनुच्छेद में छोड़ आए हैं, जहां अरब देश के अनुवादकों को ठहर जाना पड़ा था……

अरब के अनुवादक जिस शब्द पर ठिठक गए थे, वह था – ‘ज्या’ या ‘जीवा’; आज जिसे हम त्रिकोणमिति के sine फलन (function) के रूप में जानते हैं। आज sine फलन को एक समकोण त्रिभुज की सहायता से परिभाषित किया जाता है। समकोण त्रिभुज में आधार और कर्ण के बीच बनने वाले कोण का sine फलन लंब और कर्ण का अनुपात होता है। नीचे चित्र में समकोण त्रिभुज OPN में Sine ϴ = PN/OP.

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चाप s की ‘ज्या’ = PN, Sine ϴ = PN/OP (चित्र श्री राधाचरण गुप्त जी द्वारा लिखित एवं NCERT द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्राचीन भारतीय गणित की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक झलकियाँ से लिया गया है|)
लेकिन प्राचीन भारतीय गणित ज्योतिष में प्रयुक्त ज्या को आधुनिक sine से तनिक भिन्न रूप में परिभाषित किया जाता था। यह परिभाषा थी कि यदि बिंदु P से अर्धव्यास OQ पर लंब PN खींचा जाए तो PN को चाप s की ‘ज्या’ कहते हैं। खैर इस गणितीय चर्चा को यहीं छोड़ दें तो कोई हर्ज नहीं, वापस चलते हैं शब्द चर्चा पर…..

'ज्या' शब्द भारत से उत्पन्न हुआ और अरब होते हुए यूरोप पहुँचा। इस क्रम में ज्या से अपभ्रंश होकर 'साइन' बन गया।

👉 भारत के अनेकों प्राचीन गणितज्ञों ने श्लोक के रूप में ज्या-सारणी प्रस्तुत की जिनमें आर्यभट (आर्यभटीय), भास्कर द्वितीय (करणकुतुहल और सिद्धान्तशिरोमणि), वराहमिहिर (पञ्चसिद्धान्तिका), ब्रह्मगुप्त (ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त), श्रीपति (सिद्धान्तशेखर), वटेश्वर (वटेश्वरसिद्धान्त), नित्यानन्द (सर्वसिद्धान्तराज) तथा ज्ञानराज (सिद्धान्तसुन्दर) प्रमुख हैं।

‘ज्या’ और ‘जीवा’ शब्दों का अर्थ है – ‘धनुष की डोरी’| ऊपर के चित्र में चाप PQF और रेखांश PF से मिलकर बनने वाली आकृति धनुषाकार है, जिसमें PF धनुष की डोरी के स्थान पर है| इसी सादृश्य के चलते भारतीय गणितज्ञों ने PN को ‘ज्या’ या ‘जीवा’ नाम दिया था| हालांकि आज ‘ज्या’ और ‘जीवा’ दोनों समानार्थी नहीं रह गए हैं| आज जहाँ ‘ज्या’ का प्रयोग sine फलन की तरह से होता है, तो वहीँ ‘जीवा’ वृत्त के किन्हीं दो बिन्दुओं को मिलाने वाले रेखांश के लिए प्रयोग होता है अर्थात अब यह अंग्रेजी के chord शब्द का हिंदी रूपांतर है|

‘ज्या’ या ‘जीवा’ शब्द अरब देश के अनुवादकों के लिए नया शब्द था| यह शब्द अपने अर्थ गर्भ में एक गणितीय संकल्पना को छिपाए हुए था, जिसका आविष्कार भारत में हुआ था और अरब में ऐसी कोई संकल्पना नहीं थी और इसीलिए इस संकल्पना के लिए अरबी भाषा में कोई शब्द भी न था| ऐसे में अनुवादकों ने संस्कृत के ‘जीवा’ शब्द को ही अरबी लिपि में लिख देना उचित समझा| यहाँ यह समझना आवश्यक है कि अरबी लिपि में शब्दों को लिखने का प्रचलन कुछ ऐसा है कि केवल व्यंजन लिखे जाते हैं, स्वरों को सन्दर्भ के अनुसार पाठक स्वयं समझ लेता है| इसलिए एक ही आधार शब्द में अलग-अलग स्वर जोड़कर एक ही आधार शब्द से कई शब्द बन जाते हैं| जैसे कि अरबी में ‘किताब’ लिखने के लिए अरबी लिपि में जो शब्द लिखा जाता है, उसकी रोमन में ध्वनि होगी- k–t–b. अब इस आधार शब्द से कई शब्द निकल सकते हैं जो इस पर निर्भर होगा कि कहाँ कौन सा स्वर रखा जाता है| उदाहरण देखें –

ki–tā-b का अर्थ है – पुस्तक
ku-tu-b का अर्थ है – पुस्तकें
kā-ti-b का अर्थ है – लेखक

मतलब यह कि अरबी लिपि में चाहे आपको ‘किताब’, ‘कुतुब’ या ‘कातिब’ में से कोई भी शब्द लिखना हो, लिखा एक ही शब्द जाएगा; बस पढ़ने वाला संदर्भ के अनुसार लक्षित शब्द को समझेगा|

तो ‘जीवा’ के लिए अरब के अनुवादकों ने अरबी लिपि में जो शब्द लिखा, उसकी ध्वनि थी – ‘J-Y-B’ या ‘ज-य-ब’| संभवतः अनुवादकों ने ‘जीवा’ को थोडा भिन्न वर्तनी ‘जीबा’ के रूप में अरबी में अंगीकार किया था| अब इस ‘ज-य-ब’ शब्द के अक्षरों में अलग अलग स्वर लगाकर अनेक शब्द बन सकते हैं, जिनमें से एक शब्द होगा – ‘जैब’| बाद में इसे या तो भ्रमवश या सुविधा के लिए जान-बूझकर ‘जैब’ ही पढ़ा जाने लगा| अरबी शब्द ‘जैब’ शब्द के अनेक अर्थ है – जेब (पॉकेट), छाती, किसी परिधान की breast-collar आदि। ऊपर हम उल्लेख कर आये हैं कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान भारत से अरब पहुंचता था और फिर अरब से यूरोप| 12वीं शताब्दी में अरब के गणित-ज्योतिष के ग्रंथों का स्पेन में अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद करते समय अनुवादकों के सामने ‘जैब’ शब्द आया| उन्होंने ‘जैब’ का लैटिन अनुवाद ‘sinus’ कर दिया, जिसके कई अर्थ हैं, जैसे – छाती, कटाव, वक्र, मोड़ आदि। इसलिए ‘जैब’ का छाती या वक्र से संबंधित अर्थ लेने पर लैटिन का sinus शब्द ठीक बैठ गया| लैटिन से अंग्रेजी और यूरोप की अन्य भाषाओं में यह ‘sine’ के रूप में पहुंचा| आगे चलकर जब भारत में अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ और उन्होंने अंग्रेजी माध्यम में पश्चिमी शिक्षा पद्धति लागू की तो भारतीय विद्यार्थियों को भी गणित की पुस्तकों में sine फलन पढाया जाने लगा| और आज हम हिंदी माध्यम की पाठ्य पुस्तकों में भी ‘ज्या’ नहीं बल्कि sine फलन ही पढ़ते हैं| इस तरह हज़ार वर्षों में एक भारतीय संकल्पनात्मक आविष्कार ‘ज्या’ या ‘जीवा’ अरब और यूरोप से होते हुए sine के रूप में भारत में ही लौट आया और वह भी इस तरह कि हमें यह पश्चिम से आयातित संकल्पना प्रतीत होती है| जबकि केवल sine शब्द पश्चिम से आया है, वह जिस संकल्पना को व्यक्त कर रहा है उसका आविष्कार हमारे देश में ही हुआ|

sine शब्द से भला कौन अनुमान लगा सकता है कि यह संस्कृत शब्द ‘जीवा’ से निकला है! लेकिन शब्दों की व्युत्पत्ति के इतिहास में ऐसी अनेक विचित्र एवं रोचक कहानियां भरी पड़ी हैं| ऐसी ही एक और कहानी है, ‘त्रिज्या’ शब्द की| ‘त्रिज्या’ शब्द का अर्थ है – वृत्त के व्यास का अर्द्ध भाग| ज्योतिष विद्या में सूर्य के कक्षावृत्त (orbit) को 12 राशियों में विभाजित किया जाता है| प्राचीन भारत एवं अन्य सभ्यताओं में भी ज्योतिष एवं गणित के समेकित अध्ययन की परंपरा थी| न तो ये दोनों अलग-अलग विषय थे और न ही इनके अलग-अलग आचार्य हुआ करते थे| तो सूर्य के कक्षावृत्त से सादृश्य के चलते किसी भी वृत्त को भी 12 भागों में बांटकर प्रत्येक भाग को एक राशि कहा जाता था| अर्थात 12 राशि = 360° और 1  राशि = 30°. अब नीचे चित्र में देखें तो रेखांश PN, चाप s की ज्या है| अब अगर बिंदु P, बिंदु G पर पहुँच जाता है तो चाप GPQ की ज्या GO होगी| ध्यान दें कि यहाँ GO वृत्त के व्यास का आधा है और चाप GPQ 90° अर्थात 3 राशि (1राशि=30°) के बराबर है| अतः ‘3 राशि की ज्या’ व्यास के आधे के बराबर है| अतः व्यास का आधा = त्रिराशिज्या (त्रि+राशि+ज्या)| बाद में त्रिराशिज्या संक्षिप्त होकर ‘त्रिज्या’ हो गया और फिर कुछ और समय बाद व्यास के आधे भाग के लिए ‘त्रिज्या’ शब्द ही रूढ़ हो गया|

ज्या जीवा - Copy
GO = चाप GPQ की त्रिराशिज्या/त्रिज्या
शब्द-संसार की वीथियां अद्भुत रूप से गहन हैं। बहुत से शब्दों के स्रोत का रास्ता ऐसे टेढ़े-मेढ़े गुंजलकों से होकर जाता है कि शब्द की व्युत्पत्ति अविश्वसनीय रूप से विचित्र प्रतीत होती है। ऐसे में संदर्भ से भिन्न होते हुए भी यहां प्रसाद जी द्वारा कामायनी के आमुख में कही गयी उक्ति याद आती है कि – “सत्य मिथ्या से अधिक विचित्र होता है।”

सन्दर्भ:

अध्याय 8: भारतीय जीवा की भ्रमण यात्रा, पुस्तक: प्राचीन भारतीय गणित की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक झलकियाँ, लेखक: राधाचरण गुप्त, NCERT प्रकाशन, मार्च 1997 संस्करण।
Tags: जीवा, ज्या, Sine

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