पुर्व एशिया में सनातन धर्म की अति प्राचीन ईतिहास

पूर्व-एशिया में सनातन धर्म की अति प्राचीन ईतिहास

कंबोडिया :

आज के पृथ्वी के मानचित्र में कंबोडिया नाम का कोई देश नहीं है। कंबोडिया का क्षेत्र घट कर वर्तमान कम्पूचिया तक सीमित रह गया है। पहले इसका क्षेत्र चीन के दक्षिण भाग तक फैला हुआ था। समुद्र से लगे हुए इस भूप्रदेश पर २००० वर्ष पूर्व बीहड़ वन था। वहाँ कि नागा जाती के धार्मिक शांत जीवन में एक दिन एक असाधारण घटना घटी।

एक प्रचंड नौका में अनेक अपरिचित सशस्त्र लोग उनके तट पर आ लगे। समाचार मिलते ही रानी सोम प्रतिकार के लिए तैयार हो गयी, परन्तु शीघ्र ही उसे पता चला कि आये हुए अजनबी लोग लड़ने, लूटने, या उनको दस बनाने के लिए नहीं आये हैं।बल्कि मित्रता के लिए आये थे।

नौका का नायक था भारत का शैलराज कौण्डिन्य। आगे चलकर इन भारतीयों के स्थानीय जनता के साथ मित्रता के सम्बन्ध स्थापित हुए।
कौण्डिन्य का महारानी सोम के साथ विवाह हुआ।

इस प्राचीन इतिहास के दो साक्षी हैं। एक है कंबोडिया में विभिन्न स्थानो पर फैले हुए शिलालेख और दूसरा है सम्भाल कर रखा हुआ चीन का इतिहास। इस इतिहास में कौण्डिन्य के द्वारा स्थापित राज्य को “फुनान का साम्राज्य” कहा गया है।

कौण्डिन्य के पश्चात् थोड़े ही कालांतर में अनेक साहसी भारतीय कंबोडिया पहुंचे और विवाह आदि सम्बन्धों से स्थानीय जीवन से एकरूप हो गए। संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति भी उनके साथ वहाँ पहुंची।

कौण्डिन्य का साम्राज्य ६०० वर्षों तक चला। बाद में वहीँ के दुसरे कम्बु वंश का साम्राज्य ८०० वर्षों तक चला। वहाँ पर वैसे ही सार्वजनिक स्नानागार थे जैसे ५००० वर्ष पूर्व के हड़प्पा सभ्यता में मिले हैं। राजा शैव होते हुए भी वहाँ शैव और बौद्ध दोनों मतों का प्रचार था। महादेव, विष्णु, बुद्ध, अवलोकितेश्वर आदि देवताओं के असंख्य मंदिर बने जिनके माध्यम से रामायण, महाभारत कि कथाओं का प्रसार समाज के सब स्तरों में हुआ। राजाओं के सामने राम राज्य का आदर्श रहता था।

गुरु-शिष्य सम्बन्धो पर आधारित प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली वहाँ विद्यमान थी। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास इन आश्रमों का भी प्रचलन वहाँ था। पुनर्जन्म, कर्म सिद्धांत, अवतार कि अवधारणाएं, चतुर्युग प्रणाली, निर्गुण तथा सगुण उपासना आदि भारतीय परम्पराएं वहाँ के लोगों में दृढ मूल हो गयी थी। १२वि शताब्दी के सूर्यवर्मन रजा ने अंगकोरवट नाम का विष्णु मंदिर बनवाया जो अपनी भव्यता और कलाके कारण आज भी जगत प्रसिद्द है। दीवारों, दीर्घाओं, प्रवेश द्वारों, तथा स्तम्भों पर भारतीय इतिहास उत्कीर्णित है।

थाईलैंड :

पहले इस देश का नाम स्याम था। रामायण यहाँ का राष्ट्रीय ग्रन्थ है। राजाओं के नाम में “राम” उपाधि होती है। साहित्यकारों का प्रिय पक्षी है हंस। राष्ट्रीय पंथ बौद्ध है। पहले ये कंबुज साम्राज्य का अंग होने के कारण वैदिक संस्कृति का प्रभाव भी यहाँ विद्यमान है। भारत में जितने प्रकार कि बुद्ध मूर्तियां और मंदिर है, वे सब प्रकार यहाँ के प्राचीन अवशेषों में पाये जाते हैं। यहाँ कि भाषा और लिपि पर भी संस्कृत कि छाप है।

दक्षिण चीन के नानचाओ प्रदेश का पूर्व नाम था गांधार। उसमे एक राज्य का नाम था विदेह, जिसकी राजधानी थी मिथिला। कंबुज साम्राज्य वहाँ तक फैला हुआ था। १३ वि शताब्दी में चीन के मुग़ल सम्राट कुबूलईखां ने जब गांधार पर आक्रमण किया तब वहाँ के थाई लोग प्रथम असम और ब्रह्मदेश गए और वहाँ से स्याम पहुंचे। स्याम में जब उनके प्रथम राजा का राज्याभिषेक हुआ तब उसने “इंद्रादित्य” नाम धारण किया। १७८२ में वर्तमान राजकुल के प्रथम राजा ने राज्याभिषेक के समय “प्रथम राम” कि उपाधि धारण कि। वहाँ कि कालगणना में बुद्धनिर्वाण और शालिवाहन दोनों संवत के प्रयोग होते हैं।

असम के इतिहास में थाई लोगों के सात सौ वर्ष पूर्व असम में आने का उल्लेख है। यहाँ वे स्वयं को “अहोम” कहते हैं। उनकी प्राचीन पुस्तकों में “हमारे पूर्वज सुक़ाफ़ा इंद्रा के वंशधर हैं” ऐसा अभिमानपूर्वक उल्लेख है। आज अहोम हिन्दू समाज कि एक उपजाति मानी जाती है।

लाओस :

लाओस के आदिदेवता भद्रेश्वर हैं। यहाँ के जिस पहले राजा का उल्लेख मिलता है वह है श्रुतवर्मन। उसका पुत्र था श्रेष्ठवर्मन जिसकी श्रेष्ठपुर राजधानी आज खँडहर कि स्थिति में है। वहाँ के लिंग पर्वत पर भद्रेश्वर मंदिर १५०० साल पुराना है। वहाँ बौद्ध विहार भी थे। कुछ विहारों में पद्मासन लक्ष्मी कि मूर्तियां या शिवलिंग मिलते हैं। किन्ही मंदिरो में बुद्ध कि मूर्तियां हैं। वहाँ पर अधिक मात्र में शालिवाहन संवत प्रचार में है।

लाओस कि राजभाषा संस्कृत थी और मतप्रचार कि भाषा पाली थी। आज भी वहाँ कि भाषा में अनेक संस्कृत शब्द हैं। लाओस का साहित्य प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के अनुसार ही है। भारत और लाओस कि संस्कृतियों कि आत्मा एक ही है। वहाँ कि संस्कृति स्वतंत्र होते हुए भी भारतीय संस्कृति कि अखंड धारा से उसका नाता माता-पुत्री जैसा है।

वियतनाम :

पहले इस देश का नाम चंपा था। इसके चार प्रान्त थे – अमरावती, विजय, कोथर, पांडुरंग। तीसरी शताब्दी तक चंपा कंबुज साम्राज्य में था। ५ वि शताब्दी के मध्य में एक भद्रवर्मन राजा कि जानकारी मिलती है। उन्होंने वैदिक तथा अन्य देवताओं के विशाल एवं भव्य मंदिर बनवाये। छठी शताब्दी का रुद्रवर्मन रजा स्वयं को ब्रह्मक्षत्रिय कहता था। १० वि शताब्दी का हरिवर्मन राजा महायान बौद्ध पंथ का अनुयायी था। उसने भगवती देवी का भव्य मंदिर बनवाया। राजाओं के पूजाघरों में शिव, विष्णु, बुद्ध तीनों रहते थे। चीन के मुग़ल राजा कुबलईखां को भी चंपा ने परास्त किया था। चंपा में सर्वत्र बिखरे हुए प्राचीन अवशेष भारतीय परंपरा के साक्षी है।

ब्रम्हदेश (बर्मा) :

इस देश के बौद्धमत के केंद्र पेगन के समीप एक विशाल विष्णु मंदिर के अवशेष मिले हैं। इस मंदिर का जीर्णोद्धार १३ वि शताब्दी में होने का उल्लेख एक शिलालेख में है। मंदिर के परिसर में सूर्य भगवन और दशावतारों कि कुछ मूर्तियां मिली हैं। दक्षिण ब्रह्मदेश कि राजधानी श्रीक्षेत्र के समृद्ध और वैभवसंपन्न होने का उल्लेख चीनी यात्री हुएनसांग और इत्सिंग ने किया है। ब्रह्मदेश का नाम पहले अपरांत था। उस समय कि श्रावस्ती नगर आज थावृत्ति हो गयी।

११ वि शताब्दी का राजा अनवृत् हीनयान पंथी बौद्ध था। उसके काल में मनुस्मृति पर आधारित “धम्मविलास” ग्रन्थ बना, नारदस्मृति पर आधारित “महाराज धम्मथन” ग्रन्थ बनानेवाले क़ैझा को ब्रह्मी सम्राट ने “मनुराज” उपाधि से सम्मानित किया था। बौद्धमत में वैदिक पूजा पद्दति का सम्मान था।

आज के तथाकथित भारतीय नवीन वौध भले ही त्रिपिटक अध्ययन न किया हो परंतु सनातन को नीचा दिखाते है। उनको ये भी पता नही सुत पिटक के यज्ञ पद्धति अथर्ववेद से लिया गया है। जो कि केवल संस्कृत से पालि में अनुवाद किया गया है। कुछ मंत्र का उच्चारण तो स्पष्ट वैदिक संस्कृत जैसा है।

कोरिया :

चीन और तिब्बत से भारतीय भिक्षु अन्यान्य देशों में गए। कोरिया और जापान में बौद्ध दर्शन का प्रवेश इन संस्कृति प्रचारकों द्वारा चौथी शताब्दी में हुआ। कोरिया के तीन राज्यों में बौद्ध जीवन प्रणाली को राज्याश्रय मिला। कोरिया के भिक्षु संघ कि विशेषता यह रही कि जब भी कोरिया पर आक्रमण हुआ तब वे भिक्षु मातृभूमि के रक्षणार्थ खड्ग धारण कर कूद पड़े।

जापान :

चीन और कोरिया से कई अधिक संख्या में बुद्ध मूर्तियां जापान से प्राप्त हुई है। जापान का सर्वाधिक प्राचीन मत शिंतो है। कुछ विद्वानो का मत है कि शिंतो शब्द चीन के शिंतु से और शिंतु भारत के इंदु शब्द से रूपांतरित हुआ। उनके मतानुसार हिन्दू शब्द कि व्युत्पत्ति इसी इंदु शब्द से हुई है जिसका अर्थ है चन्द्रमा। जापान के अधिकांश प्राचीन देवता हिन्दू देवता ब्रह्मा, विष्णु,  लक्ष्मी, सरस्वती है।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रमेशचंद्र मजुमदार के निर्देशन में कोलकाता विश्वविद्यालय में हुए एक शोध के अनुसार शिंतो मत के सारे देवी देवता हिन्दू देवी देवता ही है, केवल उनके नामों का जापानीकरण हुआ है। तदनुसार ब्रह्मा, इंद्र, शिव, गणेश, सरस्वती, रूद्र, पृथ्वी, सूर्य, सोम, कार्तिकेय, कुबेर, यम आदि जापान के भी देवी देवता है। भैंस पर बैठे यम को न्याय का देवता माना जाता है, वे सबसे अधिक डरे जाते हैं। माँ बच्चों को डरते हुए कहती है कि यदि तुम झूठ बोलोगे तो “यम्मा” तुम्हारी जीभ कट लेगा। जापान में “नामकिरी अचल कोया” का मंदिर है। अचल याने शिव और नामकिरी याने समुद्र को शांत करने वाला। जापान में भारत को “तेनजकु” याने स्वर्ग कहा जाता है।

पांचवी शताब्दी में बौद्ध मत का आगमन यहाँ हुआ। लकड़ी के विहार और बुद्ध मंदिर बने। बौद्ध और शिंतो मत के समन्वय से जापानी संस्कृति का गठन हुआ। भारतीय संस्कृति जहाँ जहाँ पहुंची वहाँ वहाँ कि संस्कृत को उसने समृद्ध किया, कहीं भी उच्छेद नहीं किया। जापानी स्थापत्यकला, चित्रकला भिन्न होते हुए भी उस पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। संस्कृत भाषा तथा रामायण महाभारत कि कथाओं का भी उन पर प्रभाव पड़ा ।

#कृष्णप्रिया

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